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संतोष जयतिलक
बोहा
मणव तिजचह नर सुरह हीडगवं गति चारि । वीर भाइ गोइम निमुरिण लोभु वरा संसारि ।।४।।
काहिउ स्वामी लोम बलिवंड। तष पूरिउ गोइमिहि इसु समत्त गय जिज गुजारहि । इसु तनिइ त बलु. को समस्यु कहुइ सु विदारक ।। कवण बुद्धि मनि सोचियइ कीज कवरण उपाय | किस पौरिषि यहु जीतियइ सरवनि काहहु सभाउ ॥४७॥ सुबह गोइम कह्इ जिणगाह । मह सासरण निम्मलइ सुरात धम्मु भव बंध तुहि । अति सूषिम भेद सुरिश मनि संदेह खिण माहि मिट्टहि ॥ काल अनंतिहि ज्ञान यहि कहियउ प्रादि अनादि । लोभु दुसह इव जित्तयइ संतोषह परसादि ।।४८॥ कहहु उपजइ कह संतोषु । कह वासइ थानि उहु, किस सहाद वलुइ तउ मंडइ । क्या पौरिषु सैनु तिमु, कास वुद्धि लोमाह विहंडइ ।। जोरु सखाई भविय हुइ पयडावं पहु मोस्तु । गोइम पुछइ जिण कहहु किस उ समटु संतोषु ॥४६॥ महजि उपज्जद चिति संतोषु । सो निमसइ सप्तपुरि, जिण सहाइ बलु करइ इत्तउ । गुण पौरिषु सन धम्मु, ज्ञान बुधि लोभह जित्तइ ।। होति सखाई भवियर, टालइ दुरगति घोषु ।
सुगिा गोइम सरवनि कहउ इसउ सूरू संतोषु ।।५०॥ रासा छंद
इसउ सुरु संतोषु जिनिहि घट महि कियउ। सकयस्थत तिन पुरिसह संसारिहि जिमउ ।। संतोषिहि जे तिय ते ते चिह नंदियहि । देवह जिउ ते मारशुस महियलि बंदियहि ॥५१॥