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________________ t आचार्य चंद्रकीर्ति समय : श्वरी धीर धरणी ढोली नखिता, कोपिन राखण !! हस्ती हस्ती संघाते पार्थडे, रथो र सुभट सहू हम भडे हम हार जब खजयो, नीसा नादें जग गज्जयो || कवि ने अन्त में जो अपना वर्णन किया है, वह निम्न प्रकार है : श्री मूल संघ सरस्वती गछे रे, मुनीवर श्री पदमनन्द रे देवेन्द्रकीरति विद्यानंदी जयो रे, मल्लीभूषण पुष्प क द रे ॥ श्री लक्ष्मीचंद्र पाटे थापया रे, अभय सुचंद्र मुनीन्द्र रे । तस कुल कम रवि समोरे, अभयनंदी नमें नरचन्द्र रे ॥ ते तर पार्टी सोहावयो रे, श्री रत्नकीरति सुगुण महार रे । तास शीष सुरी गुणे मंडयो रे, चन्द्रकीरति कहे सार रे I एक मां एह भरणें सांभले रे, लखे भलु एह आख्यान रे । मन रे वांछतिफलले लहे रे, नव भर्वे लहे बहु मान टे I संवत सोल पंचावने रे, उजाली दशमी चैत्र मास रे ।। वाडोरली नमरे रचना रची है, चन्द्रभ सुभ भावास रे t नित्य नित्य केवली जे जपे रे, जय जयनाम प्रसीधरे ॥ गरधर प्रादिनाथ केर डोरे, एकत्तरमो बहू रिव रे । विस्तार आदि पुराण पांडवे भगोरे, एह संक्षेपे कही सार रे ॥ भरणे सुरणे भविते सुख लहे रे, चन्द्रकीरति कहे सार रे । १५६ कवि ने इसे संवत् १६५५ में समाप्त किया था। इसे यदि अन्तिम रचना भी माना जावे तो उसका समय संवत् १६६० तक का निश्चित होता है । इसके अतिरिक्त कवि ने अपने गुरु के रूप में केवल 'रत्नकीर्ति' का ही नामोल्लेख किया है, जबकि संवत् १६६० तक तो रत्नकोति के पश्चात् कुमुदचन्द्र मी भट्टारक हो गए थे, इसलिए यह भी निश्चित सा है कि कवि ने रीति से ही दीक्षा ली थी और उनकी मृत्यु के पश्चात् वे संघ से अलग ही रहने लगे थे। ऐसी अवस्था में
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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