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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिश्व
वाला बहोत्सर धंग रे, सीयले जीत्यो अनंग । पाहंत मुनी पूरसंघ के सेवो सुरसरुजी ।। सेवो सज्जन आनंद धनि कुमुदचन्द मुरिणद, रतनकीरति पाटि बंद के गछपति गुणनिलोनी ॥१॥
जीवों की दया करने के कारण लोग उन्हें दया का वृक्ष कहते थे । विद्याबल से उन्होंने अनेक विद्वानों को अपने बया में कर लिया था। उनकी कोत्ति चारों ओर फैल गयी थी तथा राजा महाराजा एवं नवाब उनके प्रशंसक बन गये थे।
कुमुदचन्द्र का जन्म गोपुर ग्राम में हुआ था। पिता का नाम सदाफल एवं माता का नाम पद्याबाई था । इन्होंने मोह वंश में जन्म लिया था। इनका जन्म का नाम क्या था, इसके विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता । वे जन्म से होनहार थे।
बचपन से ही वे उदासीन रहने लगे और युवावस्था से पूर्व ही इन्होंने संयम धारण कर लिया । इन्द्रियों के ग्राम को उजाड़ दिया तथा कामदेव रूपी सर्प को जीत लिया ।२ अध्ययन की ओर इनका विशेष ध्यान था। ये रात दिन व्याकरण, नाटक, न्याय, आमम एवं छंद अपकार शास्त्र आदि का अध्ययन किया करते थे। गोम्मटसार प्रादि ग्रन्थों का इन्होंने विशेष अध्ययन किया था । विद्यार्थी अवस्था में ही ये म. रत्मकोत्ति के शिष्य बन गये । इनकी विद्वत्ता, वाक्चातुर्मता एवं प्रगाय शान को देखकर य. रत्नकीसि इन पर मुग्ध हो गये और इन्हें अपना प्रमुख शिष्य बना लिया। थीरे २ इनकी कोसि बढ़ने लगी। रत्नकीति में बारडोली नगर में अपना पट्ट स्थापित किया था और संवत् १९५६ :सन् १५९९) वंशाख मास में Mamamimmwwmamewom १. मोठ वंश शृगार शिरोमणि, साह सबाफल सात रे।
जायो जतिबर जुग जयवन्तो, पपाबाई सोहात रे ।। २. बालपणे जिणे संयम लोषो, परीयो घेरग रे।
इन्द्रिय ग्राम उजारया हेला, जौत्यो मद नाग रे ॥ ३. अहमिशि छन्द प्यरकरण नाटिक भणे,
न्याय आपम अलंकार। वावी गज केसरी विरुद्ध यारु बहे, सरस्वती गच्छ सिणगार रे"
नीत धर्मसागर कृत