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________________ - - . शझिंप्र संत १८ - - - - १५४३, १५४८ आदि वर्षों में प्रतिष्ठापित की हुई किसनी ही मूत्तियां उपलब्ध होती है। संवत् १५४८ में जो इनकी द्वारा शहर मुडासा ( राजस्थान ) में प्रतिष्ठा की गयी थी । उस में मैकड़ों ही नहीं किन्तु हजारों की संख्या में मूत्तियां प्रतिष्ठा पित की गयी थी। यह प्रतिष्ठा जीवराज पापडीवाल द्वारा करवायी गयी थी। भट्टारक जिन चन्द्र प्रतिष्ठाचार्य थे। म० जिनचन्द्र के शिष्यों में रत्नकीति, सिंहकीति, प्रमाचन्द्र, जगतकीति, चास्कीति, जयकीनि, भीमसेन, मेघावी के नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । रत्नकीत्ति ने संवत् १५७२ में नागौर (राजस्थान) में भट्टारक गादी स्थापित की तथा सिहकीति ने प्रदर में स्वतंत्र भद्वारक मादी की स्थापना की। इस प्रकार मट्टारक जिन चम्न ने अपने समय में साहित्य एवं पुरातत्व की ओ रोवा की थी वह सदा ही स्वणक्षिरों में लिपिबद्ध रहेगी। ४. भट्टारक प्रमाचन्द्र प्रमाचन्द्र के नाम से चार प्रसिद्ध भट्टारक हो । प्रथम भट्टारक प्रभाचन्द्र भालचन्द के शिष्य थे जो सेनगण के भट्टारक थे तथा जो १२ वीं शताब्दी में हम थे। दूसरे प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकोत्ति के शिष्य थे जो गुजरात की बलात्कारगरणउत्तर शाखा के भट्टारक बने थे । ये चमत्कारिक मट्टारक थे और एक बार इन्होंने प्रमावस्या को पुणिमा कर दिखायी थी । देहली में राघो चतन में जो विवाद हुआ पा उसमें इन्होंने विजय प्राप्त की मौ। प्रपनी मन्त्र शक्ति के कारण ये पालकी सहित ग्राकान में उड़ गये थे । इनकी मन्त्र शक्ति के प्रभाव से बादशाह फिरोजशाह की मलिका इतनी अधिक प्रभावित हुई कि उन्हें उसको राजमहल में जाकर दर्शन दंने पड़े। तीसरे प्रमाचन्द्र भट्टारक जिनचन्द्र के शिष्य थे और पौधे प्रभाचन्द्र भ. ज्ञानभूषण के शिष्य थे। यहां भट्टारक जिनचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र के जीवन पर प्रकाश डाला जावेगा। एक महारथः पावली के अनुसार प्रभाचन्द्र खण्डेलवाल जाति के श्रावक थे और बंद इनका गोल था । । १५ वर्ष तक ग्रहस्थ रहे। एक बार भ. जिनचन्द्र विहार कर रहे थे कि उनकी दृष्टि प्रभा चन्द्र पर पड़ी। इनकी पूर्व सूझ-बूझ एवं गम्भीर ज्ञान को देख कर जिनचन्द ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया । यह कोई संवत् १५५१ की घटना होगी । २० वर्ष तक इन्हें अपने पास रख कर खूब विद्याध्यन . कराया और अपने से भी अधिक शास्त्रों का ज्ञाता तथा बादबिबाद में पटु बना दिया । संवत् १५७१ को फाल्गुण कृष्णा २ को इनका दिल्ली में धूमधाम से पट्टाभिषेक हुप्रा । उस समय थे पूर्ण युवा थे । और अपनी अलौकिक वाक शक्ति
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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