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________________ पा। बाद में तो वे जैनों के बाष्यात्मिक राजा कहलाने लगे किन्तुं यही सनके पतन का प्रारम्भिक कदम यां। जैन सन्तों ने भारतीय साहित्य को अमूल्य कृतियां भेंट की है। उन्होंने सदैव ही लोक भाषा में साहित्य निर्माण किया। प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी माषाओं में रचनायें इनका प्रत्यक्ष प्रमाण है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न इन्होंने ८ वीं शताब्दी से पूर्व ही लेना प्रारम्भ कर दिया था। मुनि रामसिंह का दोहा पाहुड हिन्दी साहित्य की एक अमूल्य कृति है जिसकी तुलना में भाषा साहित्य की बहुत कम कृतियों आ सकेंगी। महाकवि तुलसीदास जी को तो १७ वीं शताब्दी में भी हिन्दी भाषा में रामचरित मानस लिखने में झिझक हो रही थी किन्तु इन जैन सन्तों ने उनके .० वर्ष पहले ही साहस के साग प्राचीन हिन्दी में रचनायें लिखना प्रारम्भ कर दिया था । जैन सन्तों ने साहित्य के विभिन्न अंगों को गल्लवित किया 1 वे केवल चरित काश्यों के निर्माण में ही नहीं सुलझै किन्तु पुराण, काव्य, देलि, रास, पंचासिका, शतक, पत्रीसी, बावनी, विवाहलो, पाख्यान आदि काव्य को पचासों रूपों को इन्होंने अपना समर्थन दिया और उनमें अपनी रचनायें निर्मित करके उन्हें पल्लवित होने का सुअवसर दिया । यही कारण है कि काव्य के विभिन्न अंगों में इन सन्तों द्वारा निर्मित रचनायें अच्छी संख्या में मिलती हैं। माध्यात्मिक एवं उपदेशी रचनायें लिखना इन सन्तों को सदा हो प्रिय रहा है । अपने अनुभव के माधार पर जगत की दशा का जो सुन्दर चित्रण इन्होंने अपनी कृतियों में किया है वह प्रत्येक मानव को सत्पथ पर ले जाने वाला है। इन्होंने मानव से जगत से भागने के लिये नहीं कहा किन्तु उस में रहते हुए ही अपने जीवन को सुमुन्नत बनाने का उपदेश दिया। शान्त एवं पाध्यात्मिक रस के अतिरिता इन्होंने बीर, शृंगार, एवं अन्य रमों में भी खूब साहित्य सृजन किया । महाकवि वीर द्वारा रचित 'जम्बूस्वामीचरित' (१०७६) एवं भ० रतनफीति द्वारा धीविलासफाग इसी कोटि की रचनायें हैं । रसों के अतिरिक्त छन्दों में जितनी विविधताएं इन सन्तों की रचनाओं में मिलती हैं उतनी पन्यत्र नहीं। इन सन्तों की हिन्दी, राजस्थानी, एवं गुजराती भाषा की रचनायें विविध छन्दों से आप्लाश्रित हैं । लेखक का विश्वास है कि भारतीय साहित्य की जितनी अधिक सेवा एवं सुरक्षा इन जन सन्तों ने की है उतनी अधिक सेवा किसी सम्प्रदाय अथवा · धर्म के साधु वर्ग द्वारा नहीं हो सकी है। राजस्थान के इन सन्तों ने स्वयं न तो विविध
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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