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________________ भट्टारक रत्नौति १३३ २७. बली बंधो का न बरज्यो अपनी २८. आजो रे अखि सामलियो बहालो रथि परि दो पाचे र २९. गोखि चडी 'जू ए रायुल राणी नेमिकुवर वर प्रावे रे ३०. प्रावो सोहामणी सुन्दरी वृन्द रे पूजिये प्रथम जिरपद रे ३१. ललना समुद्रविजय सुत साम रे यदुपति नेमकुमार हो ३२. सुरिण सखि राजुल कहे हैडे हरष न माय लाल रे ३३. सशपर बदन सोहामरिण रे, गजगामिनी गुणमाल रे ३४. वणारसी नगरी नो राजा अश्वसेन गुणधार ३५. धीजिन सतमति जता ना रखी रे ३६. नेम जी दयालुद्वारे तू तो यादव कुल सिणगार ३७. कमल बदन करूणा निलयं ३८. सुदर्शन नाम के में पारि मन्य कृतियां ३६. महावीर गीत ४०. नेमिनाथ फागु ४१. नेमिनाथ का बारहमासा ४२. सिख धूल ४३. बलिमदनी वीनती ४४. नेमिनाथ वीनती मूल्यांकन म. रत्नकोत्ति दि० जैन कवियों में प्रथम कवि हैं जिन्होंने इतनी अधिक संख्या में हिन्दी पद लिखे हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि उस समय कबीरदास, सूरदास एवं मीरा के पदों का देश में पर्याप्त प्रचार हो गया था और उन्हें अत्यधिक चाव से गाया जाता था। इन पदों के कारण देश में भगबद् भत्ति, की ओर लोगों का स्वतः ही मुकाव हो रहा था । ऐसे समय में जैन साहित्य में इस कमी को पूत्ति के लिए भ० रत्नकोत्ति ने इस दिशा में प्रयास किया और अध्यात्म एवं भक्ति परक पदों के साथ-साथ विरहारमक पद भी लिखे और पाठकों के समक्ष राजुल के जीवन को एक नये रूप में प्रस्तुत किया। ऐसा लगता है कि कवि राजुल एवं नेमिनाथ की
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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