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________________ राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ५. संवत् १५२७ वैशाख बुदि ११ को आपने एक और प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रवसर पर बड जातीय जयसिंह आदि श्रावकों ने धातु की रलत्रय चौबीसी की प्रतिष्ठा करवाई। ३. भट्टारक जिनचन्द्र मट्टारक जिन चन्द्र १६ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध भट्टारक एवं जैन सन्त थे । भारत की राजधानी देहली में भट्टारकों की प्रतिष्ठा बढाने में इनका प्रमुख हाथ रहा था । यद्यपि देहली में ही इनकी भट्टारक गादी थी लेकिन वहां से ही ये सारे राजस्थान का भ्रमण करते और साहित्य एवं संस्कृति का प्रचार करते । इनके गुरू का नाम शुभचन्द्र था और उन्हीं को स्वर्गवास के पश्चात् संवत् १५०७ की जेष्ठ कृष्णा ५ को इनका बडी धूम-धाम से पट्टाभिषेक हुआ। एक भट्टारक पट्टावली के अनुसार इन्होंने १२ वर्ष की आयु में ही घर बार छोड़ दिया और भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य वन गमे । १५ वर्ष तक इन्होंने शास्त्रों का खूब अध्ययन किया । भाषण देने एवं वाद विवाद करने की कला सीखी तथा २७ में वर्ष में इन्हें भट्टारक पद पर अभिषिक्त कर दिया गया। जिनचन्द्र ६४ वर्ष तक इस महत्वपूर्ण पद पर आसीन रहे । इतने लम्बे समय तक मट्टारक पद पर रहना बहुत कम सन्तों को मिल सका है। ये जाति से बघेरवास जाति को श्रावक थे । जिनचन्द्र राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाज एवं देहली प्रदेश में खूब बिहार करते : जनता को वास्तविक धर्म का उपदेश देते । प्राचीन ग्रन्थों को नमी नयी प्रतिया लिखवा कर मन्दिरों में विराजमान करवाते, नये २ ग्रथों का स्वयं 'निर्माण करते तथा दूसरों को इस ओर प्रोत्साहित करते । पुराने मन्दिरों का डीगोंद्वार करवाते तथा स्थान स्थान पर नयी २ प्रतिष्ठायें करवा कर जैन धर्म एवं मस्कृति का प्रचार करते । आज राजस्थान के प्रत्येक दि जैन मन्दिर में इनके द्वारा प्रतिष्ठित एक दो मुत्तियां अवश्य ही मिलेंगी। संवत् १६४८ में जीवराज पापड़ीवाल ने जो बड़ी भारी प्रतिष्ठा करवायी थो वह सब इनके द्वारा ही सम्पन्न हुई थी। उस प्रतिष्ठा में सैकड़ों ही नहीं हजारों मूर्तियां प्रतिष्ठापित्त करवा कर राजस्थान के अधिकांश मन्दिरों में विराजमान की गयी थी। ५. संवत् १५२७ वर्षे वैशाख वदी ११ वषे श्री मूलसंघे भट्टारक श्री भुवनकीत्ति उपदेशात् हूंबड श्र० असिंग भार्या भूरी सुत धर्मा भार्या होरु माता वीरा भार्या मरगदी सुत माज्या भूघर खोमा एते श्री रत्नत्रयविंशतिका नित्यं प्रणमति ।
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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