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________________ १६२ राजस्थान के जन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व यद्यपि अभी वे पूर्णतः युवा थे। उनके संग प्रत्यंग से सुन्दरता टपक रही थी, लेकिन उन्होंने अपने आस्म-उद्धार के साथ-साथ समाज के अज्ञानान्वकार को दूर करने का बीड़ा उठाया और उन्हें अपने इस मिशन में पर्याप्त सफलता भी मिली। उन्होंने स्थान-स्थान पर विहार किया। राजस्थान से उन्हें प्रत्यधिक प्रेम था इसलिए इस प्रदेश में उन्होंने बहुत भ्रमण किया और अपने प्रवचनों द्वारा जनसाधारण के नैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास में महत्वपूर्ण योग दान दिया । "शुभचन्द्र' नाम के वे पांचवे भट्टारक थे, जिन्होंने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में विशेष रुधि ली। 'शुभचन्द्र' मुजरात प्रदेश के जलसेन नगर में उत्पन्न हुए। यह नगर जैन समाज का प्रमुख केन्द्र था तथा हूंबह जाति के श्रावकों का वहाँ प्रभुत्व था । इन्हीं श्रावकों में 'हीरा' भी एक श्रावक थे जो धन धान्य से पूर्ण तथा समाज द्वारा सम्मानित व्यक्ति थे। उनकी पत्नी का नाम 'माणिक दे' धा। इन्हीं की कोख से एक सुन्दर बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम 'नवल राम' रखा गया। 'बालक नवल' अत्यधिक व्युत्पन्न-मति थे-इसलिए उसने अल्पायू में ही व्याकरण, न्याय, पुराण, छन्द-शास्त्र, अष्टसहस्री एवं चारों वेदों का अध्ययन कर लिया । १८ वीं शतामसी में गुजरात में रामस्थान में महारका साघुनः का अच्छा प्रभाव था । इसलिए नवल राम को वचपन से ही इनकी संगति में रहने का अवसर मिला। 'भ• अमयचन्द्र' के सरल जीवन से ये अत्यधिक प्रभावित थे इसलिए उन्होंने भी गृहस्थ जीवन के चक्कर में न पड़कर आजन्म साधु-जीवन का परिपलन करने का निश्चय कर लिया । प्रारम्भ में 'ममयचन्द्र' से 'ब्रह्मचारी पद' की शपथ ली और इसके पश्चात् वे भट्टारक बन गए । 'शुभचन्द्र' के शिष्यों में पं. श्रीपाल, गणेश, विद्यासागर, जयसागर, आन्नदसागर प्रादि के नाम विशंयतः उल्लेखनीय हैं । 'श्रीपाल' ने तो शुमचन्द्र के. '३. छण रजनी कर बदम विलोकित, अर्थ ससी सम भाल । ' पंकज पत्र समान सुलोचन, ग्रीवा कर विशाल रे ॥८॥ नाथा शुक-घंची सम सुन्दर, अधर प्रबालो वृद। रक्त वर्ण द्विज पंक्ति विराजित नीरचंता आनन्द रे ।।६।। विम दिम महन सबलन फेरी, तसाथेई करत । पंच शयब वाजिन ते बाजे, ना नभ गज्जत रे ॥२१॥ १. व्याकर्ण तर्क वितर्क अनोपम, पुराण पिंगल भेव । अष्टसहस्री आदि नथ अनेक जु हों विद जामो वैव रे ॥ . . . . . . . . --श्रीपाल कृत एक गीत
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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