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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विनयकरी राजुल कहे, चंदा बीनतड़ी अब धारो रे । उज्ज्वल गिरि जई दीनवो, चंदा जिहां दे प्राण प्राधार रे ।। गगने गमन ताहरु रुष, चंदा अमीय पर अनन्त रे । पर उपगारी तू भनो, चंदा बलि बलि बीनव संत रे॥
राजुल ने इसके पश्चात् भी चन्द्रमा के सामने अपनी यौवनावस्था की दुहाई दी तथा विरहाग्नि का उसके सामने वर्णन किया ।
विरह तणां दुख दोहिला, चंदा ते किम में सहे बाय रे । जल बिना जेम माछत्ती, चंदा ते दु:ख में बाप रे ॥
राजल अपने सन्देश-वाड़क गे कहती है कि यदि कदाचित नेमिकुमार वापिस चले आवे तो वह उनके आगमन पर वह पूर्ण शृंगार करेगी। इस वर्णन में कवि ने विभिन्न अंगों में पहिने जाने वाले प्राभूषणों का अच्छा वर्णन किया है ।
२. सूखड़ी :
यह ३७ पचों की लघु रचना है, जिसमें विविध व्यजनों का उल्लेख किया गया है । कवि को पादास्त्र का अच्छा शान था । 'सूखही' से तत्कालीन प्रचलित मिठाइयों एवं नमकीन खाद्य सामग्री का अच्छी तरह परिचय मिलता है । शान्तिनाथ के जन्मावसर पर कितने प्रकार की मिठाइयां आदि बनायी गयी श्री-इसी प्रसंग को बतलाने के लिए इन व्यञ्जनों का नामोल्लेख किया गया है । एक वर्गान देखिए--
जलेबी खाजला पूरी, पतासां फोगा संजूरी । दहीपरां फीणी माहि, साकर भरी ॥२॥
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सकरपारा सुहाली, तल पापड़ी सांकली। थापद्धास्यु थोरा वीय, पालू जीवली ॥५॥ मरकोने चांदखानि, दोठांने दही बड़ा सोनी । बाबर घेवर श्रीसो, अनेक यांनी ॥९
इस प्रकार 'कविवर अभयचन्द्र' ने अपनी लघु रचनाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य की जो महती सेवा की थी, वह सदा स्मरणीय रहेगी।