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________________ अह्म जयसागर १५५ तस पद कमल दिवाकर, मल्लिभूषण गुण सागर । प्रागार विद्या विनय तपो भलो ए। पदमावती साधी एण, ग्यास दीन रज्यो तेणें । जग जेणे जिन शासुन सोहावीयो ए ।'टा ४. घुमड़ी मोर . यह एक रूपक गीत है जिसमें नेमिनाथ के बन चले जाने पर उन्होंने अपने चारित्र रूपी चुनड़ी को किस रूप में धारण किया इसका संक्षिप्त वर्णन है। वह चारित्र की कुनड़ी नव रंग की थी। मूल गुणों का उस में रंग था, जिनवाणी का उसमें रस घोला गया था । तप रूपी देज से जो सूख रही थी। जो उसमें से पानी टपक रहा था वह मानो उत्तर गुणों के कारण चौरामी लास यांनियों से छूटकारा मिल रहा था। पांच महाव्रत, पांच समिति एवं तीन गुप्ति को जीवन में उतारने के कारण उस सुनड़ी का रंग ही एक दम बदल गया था। बारह प्रतिमा के धारण करने से वह फूल के समान लगने लगी थो। इसो चुनड़ी को छोढकर राजुल स्वर्ग गई । इस गीत को अविकल रूप से आगे दिया जा रहा है । ५. रलकीति गीत ब्रह्मा जयसागर रत्नकीति के कट्टर समर्थक थे । उनके प्रिय शिष्य तो थे ही लेकिन एक रूप में उनके प्रचारक मी थे। इन्होंने रत्नकीति के जीवन के सम्बन्ध में कई गीत लिखे और उनका जनता में प्रचार किया । रनकीति जहां भी काहीं जाते उनके अनुयायी जयसागर द्वारा लिने हुए गीतों को गाते । इसके अतिरिक्त इन गीतों में कवि ने पलकीति के जीवन की प्रमुख घटनाओं को छन्दोबद्ध कर दिया है। यह सभी गीत सरल भाषा में लिखे हुए हैं जो गुजराती से बहुत दूर एवं राजस्थानी के अधिक निकट है। मलय देश मय चंदन, वेवदास केरो नंदन । श्री रत्नकीर्ति पद पूजिथए । प्रक्षत शोभन साल ए, सहेजलदे मुत गुणमाल रे विशाल । श्री रनकोति पद पूजिथए । इस प्रकार जयसागर ने जीवन पर्यन्त साहित्य के विकास में जो अपना अपूर्व योग दिया वह इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा।
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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