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________________ अवशिष्ट संत राजस्थान में हमारे पालोच्य समय (संवत् १४५० से १७५० तक) में संकड़ों ही जैन संत हुए जिन्होंने अपने महान व्यक्तित्वहारा देश समाज सहाय की बड़ी भारी सेवायें की थी । मुस्लिम शासन काल में भारत के प्रत्येक भू भाग पर युद्ध एवं अशान्ति के बादल सदैव छाये रहते थे। शासन द्वारा यहां के साहित्य एवं संस्कृति के विकास में कोई रुचि नहीं ली जाती थी ऐसे संक्रमण काल में इन सन्तों ने देश के जीवन को सदा ऊंचा उठाये रस्ना एवं यहां की संस्कृति एवं साहित्य को विनाश होने से बचाया ऐसे २० सन्तों का हम पहिले विस्तृत परिचय दे चुके हैं लेकिन अभी तो संकड़ों एसे महान् सन्त है जिनकी सेवाओं का स्मरण करना वास्तव में भारतीय संस्कृति को श्रद्धाञ्जलि अपित करना है। ऐसे ही वह सन्तों का सक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है १. मुनि महनन्दि मुनि महनदि म. वीरचन्द के शिष्य थे इनकी एक कृति बारबखष्टी दोहा मिली है । इनका प्रपर नाम पाहुडदोहा भी है। इसकी एक प्रति पामेर शास्त्र भण्डार जयपुर में लंबत् १६०२ की संग्रहीत है जो चंपावती (पाटसू) के पार्षनाथ चैत्यालय में लिखी गई थी । प्रति शुद्ध एव सुपाठ्य है । लिपि के अनुसार रचना १५ वीं शताब्दी की मालूम होती है। कवि को यद्यपि अभी तक एक ही कृति मिली है लेकिन वही उच्च वृति है। भाषा अपना प्रमावित है तथा काव्यगत गुणों से पूर्णतः युक्त है। कषि ने रचना में के प्रादि अन्त भाग में अपना निम्न प्रकार नामोल्लेख किया है बारह विउणा जिरण णवमि फिम बारह प्रक्खरकक्क । मह्यदिण भवियामण हो, णिसुणहु थिरमण थक्क ॥२॥ भवदृश्यह निश्बिणएण, वीरपत्य सिस्सेण । भवियह परिबोहण कया, दोहा कन्व मिसेण ॥३॥
SR No.090391
Book TitleRajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size5 MB
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