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प्रथम अध्ययन
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पुत्र का भूमिगृह में पालन
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राजा की आज्ञा
तणं से विज खत्तिए तीसे अम्मधाईए अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म तव संभंते उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठित्ता जेणेव मियादेवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मियादेविं एवं वयासी - देवाणुप्पिया! तुब्भं पढमं गब्भे तं जड़ णं तुमं एयं (दा० ) एते उक्कुरुडियाए उज्झासि (तो) तओ णं तुब्धं पया णो थिरा भविस्सइ, तो णं तुमं एयं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणीपडिजागरमाणी विहराहि तो णं तुब्भं पया थिरा भविस्सइ ॥ ३५ ॥
कठिन शब्दार्थ संभंते - संभ्रांत-व्याकुल हुआ, पढमगब्भे प्रथम गर्भ, पया प्रजा - संतति, थिरा - स्थिर, रहस्सियंसि - गुप्त ।
उठ कर खड़े हो गये और जहां
भावार्थ - तदनन्तर उस धायमाता से यह सारा वृत्तांत सुन कर विजय नरेश संभ्रांतव्याकुल हो तथैव अर्थात् जिस रूप में बैठे हुए थे उसी रूप मृगादेवी थी वहां पर आये, आकर उससे इस प्रकार क "हे देवानुप्रिये ! यह तुम्हारा प्रथम गर्भ हैं, यदि तुम इसको किसी एकान्त स्थान- कूडे कचरे के ढेर पर फिकवा दोगी तो तुम्हारी संतान स्थिर नहीं रहेगी अतः तुम इस बालक को गुप्त रख कर गुप्त रूप से भक्त पान आदि के द्वारा इसका पालन पोषण करो। ऐसा करने से तुम्हारी प्रजा - संतति भविष्य में स्थिर रहेगी । "
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पुत्र का भूमिगृह में पालन
तए णं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स तहत्ति एयमट्टं विणएणं पडिसुणेइ पडिसुणेत्ता तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणीपडिजागरमाणी विहरइ, एवं खलु गोयमा ! मियापुत्ते दारए पुरापोराणाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरइ ॥ ३६ ॥
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भावार्थ तत्पश्चात् वह मृगादेवी, विजय नरेश के इस कथन को विनय पूर्वक स्वीकार करती है और वह उस बालक को गुप्त भूमिगृह में रख कर गुप्त रूप से आहार पानी आदि के द्वारा उसका पालन पोषण करने लगी । इस प्रकार हे गौतम! मृगापुत्र स्वकृत पूर्व के पाप कर्मों का प्रत्यक्ष फल भोगता हुआ समय बिता रहा है।
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