________________
नववां अध्ययन - देवदत्ता की याचना
१८३
एस णं सामी! दत्तस्स सत्थवाहस्स धूया कण्हसिरीए भारियाए अत्तया देवदत्ता णामं दारिया जोव्वणेण य रूवेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा॥१५३॥ - कठिन शब्दार्थ - खुज्जाहिं - कुब्जाओं से, आगासतलगंसि - झरोखे में, कणगतिंदूसएणं- सुवर्ण की गेंद से, कीलमाणी - खेलती हुई, आसवाहणियाए - अश्ववाहनिका-अश्वक्रीड़ा के लिए, णिज्जायमाणे - जाता हुआ, जायविम्हए - विस्मय को
प्राप्त हो।
__- भावार्थ - तदनन्तर वह देवदत्ता बालिका किसी दिन स्नान करके यावत् समस्त आभूषणों से विभूषित हुई बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर झरोखे में सोने की गेंद के साथ खेल रही थी और इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् विभूषित वेश्रमण राजा घोड़े पर सवार हो कर अनेकों सेवकों के साथ अश्वक्रीड़ा के लिए राजमहल से निकल कर दत्त गाथापति के घर के नजदीक से गुजरता है तब वह वैश्रमण राजा यावत् जाते हुए देवदत्ता बालिका को उपर के झरोखे में सोने की गेंद के साथ खेलते हुए देखा, देख कर कन्या के रूप, यौवन और लावण्य से विस्मित होकर राजपुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रियो! यह बालिका किसकी है और इसका क्या नाम है?' तब राजपुरुष हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार कहने लगे - 'स्वामिन्! यह कन्या सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री सेठानी की आत्मजा है। इसका नाम देवदत्ता है। जो कि रूप, यौवन और लावण्य से उत्तम शरीर वाली है।'
देवदत्ता की याचना ___तए णं से वेसमणे राया आसवाहणियाओ पडिणियत्ते समाणे अभिंतरठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! दत्तस्स धूयं कण्हसिरीए भारियाए अत्तयं देवदत्तं दारियं पूसणंदिस्स जुवरणो भारियत्ताए वरेह, जइवि सा सयंरज्जसुक्का। तए णं ते अन्भिंतरठाणिज्जा पुरिसा वेसमणेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल जाव पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता ण्हाया जाव सुद्धप्पावेसाई.....संपरिवुडा जेणेव दत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छित्था।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org