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विपाक सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
रहित थे, अकिञ्चन-परिग्रह से रहित थे, शोक रहित थे तथा भव भ्रमण से रहित थे । द्रव्य से निर्मल शरीर वाले और भाव से कर्मबंध के हेतुओं से रहित थे। प्रेम यानी सांसारिक संबंध, राग यानी विषयानुराग, द्वेष और अज्ञान रूप मोह से रहित थे । निर्ग्रन्थ प्रवचनों के अर्थात् आगमों के उपदेशक थे। उपदेशकों के नायक थे और उनकी स्थापना करने वाले थे। साधु के अधिपति । साधुओं के समूह को बढ़ाने वाले थे। तीर्थंकर भगवान् के वचनादि चौतीस अतिशयों से युक्त थे। सत्य वचन के पैंतीस अतिशयों से युक्त थे। भगवान् के आगे आगे धर्मचक्र आकाश में चलता था । भगवान् के ऊपर तीन छत्र आकाश में रहते थे। उनके ऊपर आकाश में उत्तम सफेद चंवर होते थे। आकाश में स्फटिक रत्नों का सिंहासन प्रतीत होता था । चलते समय धर्म ध्वजा उनके आगे आगे चलती थी। उनकी आज्ञा में चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियाँ थीं। आगे बडा साधु और पीछे छोटा साधु इस प्रकार अनुक्रम से चलते हुए और ग्रामानुग्राम यानी एक गांव (ग्राम) से दूसरे ग्राम पधारते हुए शरीर और संयम में बाधा नहीं पहुँचाते हुए सुखपूर्वक विहार करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्ड उद्यान में पृथ्वी शिलापट्ट पर पधारे। पुष्प करण्ड उद्यान का और पृथ्वी शिलापट्ट का वर्णन पहले किया जा चुका है।
विवेचन - तीर्थंकर भगवंतों के शरीर का वर्णन शिख नख अर्थात् मस्तक से लेकर पैरों के नखों तक होता है जबकि सामान्य मनुष्यों के शरीर का वर्णन पैरों से लगा कर मस्तक तक होता है।
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तीर्थंकर भगवंतों के चौतीस अतिशयों का वर्णन समवायांग सूत्र के ३४वें समवाय में तथा वाणी के पैंतीस अतिशय का वर्णन समवायांग सूत्र के ३५ वें समवाय में है। अतः जिज्ञासुओं को वहाँ देख लेना चाहिये ।
सुबाहुकुमार की जिज्ञासा
परिसा णिग्गया अदीणसत्तू जहा कोणिए तहेव णिग्गए जहा उववाइए जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ । तएणं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स तं महया जणसद्दं वा जाव जणसण्णिवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयमेयारूवे अज्झत्थि जाव समुप्पज्जित्था किण्णं अज्ज हत्थिसीसे णयरे इंदमहेइ वा खंदमहेइ
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