________________
२६४
विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ...........................................................
कठिन शब्दार्थ - एयारूवं - इस प्रकार के, अज्झत्थियं - आध्यात्मिक विचारों को, णिग्गओ - निकला, धम्ममाइक्खड़ - धर्मोपदेश दिया, सव्वओ - सब प्रकार के, पाणाइवायाओ- प्राणातिपात से, वेरमणं - निवृत्त होना, मुसावायाओ - मृषावाद से, अदिण्णादाणाओ - अदत्तादान यानी चोरी से, मेहुणाओ - मैथुन से, परिग्गहाओ - परिग्रह से, महतिमहालिया मणूसपरिसा - बहुत बड़ा जन समुदाय।
भावार्थ - तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुबाहुकुमार के इस प्रकार के उपरोक्त आध्यात्मिक विचारों को जान कर पूर्वानुपूर्वी से चलते हुए ग्रामानुग्राम विहार करते हुए जहां पर हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यान में कृतवनमालप्रिय यक्ष का यक्षायतन हैं वहां पर पधारे। वहां पधार कर यथोचित अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप पूर्वक आत्मचिंतन करते हुए विचरने लगे। भगवान् का आगमन सुन कर नगर निवासी लोग और राजा वन्दना करने के लिए निकले। सुबाहुकुमार भी उस महान् कोलाहल को सुन कर पहले की तरह वन्दना करने के लिये निकला। भगवान् ने धर्मोपदेश फरमाया, यथा - सर्व प्राणातिपात से निवृत्त होना, सर्व मृषावाद से निवृत्त होना, सर्व अदत्तादान से निवृत्त होना, सर्व मैथुन से निवृत्त होना, सर्व परिग्रह से निवृत्त होना, ये पांच महाव्रत हैं। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास में धर्म सुन कर नगरनिवासी लोग और राजा वापिस लौट गये।
प्रव्रज्या का संकल्प . तएणं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्टतुढे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - सद्दहामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं एवं पत्तियामि णं रोएमि णं अन्भुट्टेमि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छिय पडिच्छियमेयं भंते! से जहेव तं तुन्भे वयह। जं णवरं देवाणुप्पिया अम्मापियरो आपुच्छामि। तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामि। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह॥२१८॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org