Book Title: Vipak Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 339
________________ ३१८ विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ............................................................ अंतियाओ उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकम्मइ, अव्वकमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं उम्मुयइ। तएणं तस्स सुबाहुकुमारस्स मायाहंसलक्खणेणं पडगसाडएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता हारवारिधार-सिंदुवारछिण्णमुत्तावलिप्पगासाई सुयवियोगदूसहाई अंसूणि विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी रोयमाणी रोयमाणी कंदमाणी कंदमाणी विलवमाणी विलवमाणी एवं वयासी - जइयव्वं जाया! घडियव्वं जाया! परिक्कमियव्वं जाया! अस्सिं(य)च णं अट्टे णो पमाएयव्वं। अम्हं वि णं एवमेव मग्गे भवउ त्ति कट्ट, सुबाहुकुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया॥२३२॥ कठिन शब्दार्थ - वीसासिए - विश्वासपात्र, जीवियऊसासए - जीवन के लिये श्वास के समान, हिययाणंदजणए - हृदय को आनंद देने वाला, उप्पलेइ- नीलोत्पल कमल, पउमेसूर्य विकासी पद्म कमल, कुमुए - चन्द्र विकासी कुमुद कमल, संवडिए - बढ़ते हैं, पंकरएणंपंक रज से, णोवलिप्पइ - लिप्त नहीं होते हैं, संसारभउब्विग्गे - संसारभय से उद्विग्न, सिसभिक्खं- शिष्य की भिक्षा, हारवारिधारसिंदुवारछिण्णमुत्तावलिप्पगासाई - हार, जल की धारा, निर्गुण्डी के फूल और हार के टूटे हुए मोतियों के समान, जइयव्वं - संयम में यत्न करना, घडियव्वं - अप्राप्त गुणों को प्राप्त करना, परिक्कमियव्वं - संयम में पराक्रम करना, अस्सिं अटे - इस विषय में, णो पमाएयव्वं - प्रमाद नहीं करना। ___भावार्थ - तदनन्तर सुबाहुकुमार के माता पिता सुबाहुकुमार को आगे करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आये। भगवान् को तीन बार वंदना नमस्कार करके इस प्रकार कहने लगे कि - "हे भगवन्! यह सुबाहुकुमार हमारा इकलौता पुत्र है। यह हमें इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम, विश्वासपात्र तथा हृदय को आनंद देने वाला है। जैसे कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है और जल में बढ़ता है फिर भी वह कीचड़ और जल से लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार इस सुबाहुकुमार ने कामों में जन्म लिया है और भोगों में बढ़ा है किंतु यह कामभोगों में लिप्त नहीं हुआ है। हे भगवन्! यह संसार से उद्विग्न हुआ है और जन्म, जरा, मरण से डरा है। इसलिए यह आपके पास मुण्डित होकर गृहस्थावास का त्याग कर दीक्षा अंगीकार करना चाहता है। हम आपको शिष्य-भिक्षा देते हैं। आप शिष्य-भिक्षा को स्वीकार कीजिये।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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