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दसवां अध्ययन
३३७ ........................................................... किया गया। एक समय वहाँ तीर्थंकर भगवान् पधारे। उनका धर्मोपदेश सुन कर वरदत्तकुमार ने श्रावक धर्म अंगीकार किया। गणधर महाराज ने वरदत्त कुमार के पूर्वभव के विषय में पूछा। तब भगवान् ने फरमाया कि - यह पूर्व भव में शतद्वार नगर में विमलवाहन राजा था। इसने धर्मरुचि अनगार को विधिपूर्वक उत्कृष्ट भाव से आहारादि बहरा कर संसार परित्त किया और मनुष्य आयु बांधा। मनुष्यायु बांध कर अब यहाँ उत्पन्न हुआ है। इससे आगे शेष सारा वर्णन सुबाहुकुमार के समान है। उसे पौषध में आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुआ यावत् दीक्षा अंगीकार करके क्रमशः देवलोकों में उत्पन्न होता हुआ सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होगा। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। दीक्षा अंगीकार करके कई वर्षों तक संयम का पालन करके सुबाहुकुमार की तरह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा एवं सभी दुःखों का अंत करेगा। . हे आयुष्मन् जम्बू! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक सूत्र के दसवें अध्ययन का यह अर्थ फरमाया है। जम्बूस्वामी बोले कि हे भगवन्! जैसा आप फरमाते हैं वैसा ही है। - विवेचन - सुखविपाक सूत्र के इस दसवें अध्ययन में वरदत्त कुमार का वर्णन है। वरदत्त कुमार के जीव ने पूर्व भव में धर्मरुचि अनगार को सुपात्रदान दिया था। जिसके फलस्वरूप इस भव में उत्कृष्ट ऋद्धि की प्राप्ति हुई और संसार परित्त किया। ऐसी ऋद्धि का त्याग करके संयम अंगीकार किया और देवलोक में गये। आगे मनुष्य देव के शुभ भव करते हुए सुबाहुकुमार के समान पन्द्रहवें भव में महाविदेह क्षेत्र से मोक्ष प्राप्त करेंगे।
॥इति दशम अध्ययन समाप्त॥
॥ दूसरा श्रुतस्कन्ध समाप्त ॥ विवागसुयस्स दो सुयस्खंधा-दुहविवागो य सुहविवागो य। तत्थ दुहविवागे दस अज्झयणा एकासरगा। दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिझंति। एवं सुहविवागो वि। सेसं जहा आयारस्स॥२४५॥.
॥इइ सुहविवागसुत्तं समत्तं॥
॥ विवाग सुयं समत्तं॥ "
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