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प्रथम अध्ययन - माता-पिता और पुत्र संवाद
कल्लाणे समणस्स भगवओ जाव पव्वइस्ससि ।" एव खलु अम्मयाओ! हिरण्णे य सुवण्णे य जाव सावतिज्जे अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए दाइयसाहिए मच्चुसाहिए अग्गिसामण्णे जाव मच्चुसामण्णे सडणपडणविद्धंसण-धम्मे पच्छापुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जे से के णं अम्मयाओ जाणंति के पुव्विं गमणाए के पच्छा गमणाए तं इच्छामि णं अम्मयाओ! जाव पव्वइत्तए ॥ २२५ ॥
कठिन शब्दार्थ सकता है, रायसाहिए हैं, मच्छुसाहिए - मृत्यु मच्चुसामण्णे - मृत्यु के
अग्गिसाहिए - अग्नि नष्ट कर सकती है, चोरसाहिए - चोर चुरा राजा ले सकता है, दाइयसाहिए - भाई आदि हिस्सेदार बंटा सकते होने पर छूट जाता है, अग्गिसामण्णे - अग्नि के लिए साधारण है, लिए साधारण है।
हे माता
भावार्थ - इसके पश्चात् सुबाहुकुमार ने अपने माता-पिता से कहा कि पिताओ! आपने धन सम्पत्ति एवं सांसारिक सुखों को भोगने के लिए जो कहा सो धन को . अग्नि नष्ट कर सकती है, चोर चुरा सकता है, राजा ले सकता है और भाई आदि हिस्सेदार बंटा सकते हैं। सड़ना, गलना और नष्ट होना, यह इसका स्वभाव है। पहले या पीछे कभी न कभी इसे अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा। इस बात को भी कौन जानता है कि धन और उसका स्वामी इन दोनों में से पहले कौन नष्ट होगा और पीछे कौन नष्ट होगा ? इसलिए हे माता-पिताओ! मैं आपकी आज्ञा लेकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ।
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तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे णो संचाएइ, सुबाहुकुमारं बहूहिं विसयाणुलोमाहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विष्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा सण्णवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभयउव्वेयकारियाहिं पण्णवणाहि य पण्णवेमाणा एवं वयासी एस णं जाया! णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए पडिपुण्णे याउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिज्जाणमग्गे णिव्वाणमग्गे सव्वदुक्खपहीणमग्गे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया इव जवा . चोवेयव्वा वालुयाकवले इव णिस्सारए, गंगा इव महाणई पडिसोयगमणाए, महासमुह इव भुयाहिं दुत्तरे, तिक्खं चंकमियव्वं, गरुयं लंबेयव्वं असिधाव्व
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