Book Title: Vipak Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 320
________________ २६६ . प्रथम अध्ययन - माता-पिता और पुत्र संवाद ........................................................... योग्य, बहुमए - बहुमत-बहुत मानने योग्य, अणुमए - अनुमत-कार्य होने के बाद भी मानने योग्य, भंडकरंडगसमाणे - आभूषणों के पिटारे के समान, जीवियउस्सासए - जीवन के श्वास समान, हिययाणंदजणणे - हृदय को आनंद देने वाले, उंबरपुप्फं व दुल्लहे सवणयाए किमंग पुणपासणयाए - उम्बरवृक्ष के फूल के समान देखना तो दूर रहा, तुम्हारा नाम सुनना भी दुर्लभ हो जायगा, अम्हे - हम, जाया .- हे पुत्र!, विप्पओगं - वियोग, खणमविएक क्षण भर भी, परिणयवए - परिणतवय-जब तुम्हारी अवस्था परिपक्व हो जाय, वड्डियकुलवंसतंतुकज्जम्मि - कुल की वृद्धि करने वाली संतान हो जाय, णिरावयक्खे- सब प्रयोजन सिद्ध हो जाय, पव्वइस्ससि - प्रव्रजित हो जाना। . भावार्थ - धारिणी रानी की यह अवस्था देख कर दासियों ने शीघ्र ही उसके शरीर पर ठंडे जल के छींटे दिये और वे पानी से भीगे हुए पंखे से हवा करने लगी। थोड़ी देर बाद जब धारिणी रानी की मूर्छा दूर होकर वह सचेत हुई तब वह दया पात्र, उदास और दीन होती हुई रोती हुई एवं विलाप करती हुई सुबाहुकुमार से इस प्रकार कहने लगी-'हे पुत्र! तू हमारे इकलौते पुत्र हो। तुम हमें बहुत ही इष्ट कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम, धीरज बंधाने वाले विश्वास पात्र, सम्मत-मानने योग्य बहुत मानने योग्य, कार्य होने के बाद भी मानने योग्य आभूषणों के पिटारे के समान और मनुष्य जाति में रत्न के समान हो। तुम मेरे जीवन के श्वास के समान हो, हृदय को आनंद देने वाले हो। उम्बर वृक्ष के फूल के समान तुम्हारे सरीखे पुत्रों को देखना तो दूर रहा किन्तु नाम सुनना भी कठिन है। हे पुत्र! हम तेरा वियोग एक क्षण भर भी सहन नहीं कर सकते हैं। इसलिये हे पुत्र! जब तक हम जीवित हैं, तब तक तुम गृहस्थावास में रह कर मनुष्य संबंधी कामभोग भोगों। हमारे मर जाने पर जब तुम्हारे कुल की वृद्धि करने वाले पुत्र पौत्र आदि हो जाय और तुम्हारी अवस्था भी परिपक्व हो जाय और तुम्हारे सब प्रयोजन सिद्ध हो जाय तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षा धारण कर लेना। तए णं से सुबाहु कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरो एवं वयासी-तहेव णं तं अम्मयाओ जहेव णं तुम्हे ममं एवं वयह “तुमं सि णं जाया! अम्हे एगे पुत्ते तं चैव जाव णिरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि।" एवं खलु अम्मयाओ माणुस्सए. भवे अधुवे अणियए असासए वसणसय उवहवाभिभूए विज्जुयाचंचले अणिच्चे जलबुब्बुयसमाणे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362