________________
२७४
विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध .......................................................... महोत्सव है अथवा तालाब महोत्सव है अथवा नदी महोत्सव है अथवा द्रह महोत्सव है अथवा पर्वत महोत्सव है अथवा वृक्ष महोत्सव है अथवा चैत्य महोत्सव है अथवा स्तूप महोत्सव है जिससे ये बहुत से उग्रवंशी, भोगवंशी, राजवंशी इक्ष्वाकुवंशी, ज्ञातवंशी, कुरुवंशी, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, योद्धा, योद्धपुत्र, सेनापति, उपदेशक, लेच्छकी-एक प्रकार के ब्राह्मण, इन्भ यानी धनिक सेठ और जैसा की उववाई सूत्र में कहा है उसके अनुसार यावत् सार्थवाह आदि सब लोग स्नान करके बलिकर्म यानी तिलक छापा आदि करके नगर से बाहर जा रहे हैं ऐसा विचार करके सुबाहुकुमार ने कञ्चुकी पुरुष यानी अन्तःपुर की देखभाल करने वाले पुरुष को बुलाया
और बुला कर इस प्रकार कहा कि - हे देवानुप्रिय! क्या आज हस्तिशीर्ष नगर में इन्द्र महोत्सव आदि कोई महोत्सव है जिससे कि ये सब लोग बाहर जा रहे हैं। इसके पश्चात् सुबाहुकुमार ने द्वारा ऐसा कहा जाने पर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के आगमन का निश्चय करके उस कञ्चुकी पुरुष ने हाथ जोड़ कर सुबाहुकुमार को जय विजय शब्दों से बधाई देते हुए इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिय! आज हस्तिशीर्ष नगर में इन्द्र महोत्सव आदि कोई महोत्सव नहीं है किन्तु आज सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हस्तिशीर्ष नगर के बाहर पुष्पकरण्डक उद्यान में पधारे हैं और यथायोग्य अभिग्रह को ग्रहण करके वहाँ, विराजे हैं।
विवेचन - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के आगमन को सुनकर हस्तिशीर्ष नगर के लोग और वहाँ का राजा अदीनशत्रु भगवान् को वन्दना करने के लिए नगर के बाहर पुष्पकरण्डक उद्यान में जाने लगे। इस प्रकार जाते हुए जनसमूह को देख कर सुबाहुकुमार के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि क्या आज इस नगर में इन्द्र महोत्सव आदि कोई महोत्सव है जिससे कि ये सब लोग नगर के बाहर जा रहे हैं? ऐसा विचार होने पर सुबाहुकुमार ने अपने नौकर को इस बात का पता लगाने के लिए भेजा। वापिस आकर नौकर ने सुबाहुकुमार को यह शुभ संदेश दिया कि - हे स्वामिन्! हस्तिशीर्ष नगर में आज इन्द्र महोत्सव आदि कोई महोत्सव नहीं हैं किन्तु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हस्तिशीर्ष नगर के बाहर पुष्पकरण्डक उद्यान में पधारे हैं अतएव ये लोग वहाँ जा रहे हैं। _तण्णं एए बहवे उग्गा भोगा जाव अप्पेगइया वंदणवत्तियं अप्पेगइया पूयणवत्तियं एवं सकारवत्तियं सम्माणवत्तियं दसणवत्तियं कोऊहलवत्तियं अपेगइया अत्थविणिच्छयहेउं अस्सुयाई सुणिस्सामो सुयाई णिस्संकियाई करिस्सामो।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org