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विपाक सूत्र- द्वितीय श्रुतस्कन्ध
मनोज्ञ, मनोज्ञ रूपवाला, मनोहर, मनोहर रूप वाला, सौम्य, सौम्य रूप वाला, सुभग यानी सौभाग्यवान्, प्रियदर्शन यानी देखने में प्यारा और सुरूप है। हे पूज्य! बहुत आदमियों को भी यह सुबाहुकुमार इष्ट, इष्ट रूप वाला यावत् सुरूप लगता है और हे भगवन्! यह सुबाहुकुमार साधुओं को भी इष्ट, इष्ट रूप वाला यावत् सुरूप लगता है। हे भगवन्! सुबाहुकुमार को यह इस तरह की उदार मनुष्य ऋद्धि इष्ट रूपता यावत् सुरूपता आदि मनुष्य संबंधी ऋद्धि कैसे मिली ? कैसे प्राप्त हुई? और यह मनुष्य ऋद्धि इसके सामने कैसे आई? पूर्वभव में यह कौन था? इसका क्या नाम था ? क्या गोत्र था? किस गांव और किस सन्निवेश यानी जगह का रहने वाला था ? इसने क्या दान दिया था? क्या भोजन किया था? क्या शुभ आचरण किया था? किंस तथारूप. के यानी सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र से सम्पन्न श्रमण अथवा श्रावक के पास एक भी आर्य सुवचन को सुनकर, हृदय में धारण किया था। जिसके कारण, सुबाहुकुमार को इस प्रकार की यह उदार मनुष्य ऋद्धि मिली है, प्राप्त हुई है और स्वयं इसके सामने आई है।
विवेचन - जब सुबाहुकुमार वापिस लौट गया तो उसके इष्ट रूपता आदि उदार मनुष्य ऋद्धि की प्राप्ति का कारण जानने की श्री गौतम स्वामी के मन में इच्छा उत्पन्न हुई। इस कारण हाथ जोड़कर विनयपूर्वक भगवान् की सेवा शुश्रूषा करते हुए उन्होंने पूछा कि - हे भगवन्! यह सुबाहुकुमार इष्ट रूप वाला यावत् सुरूप वाला है देखने वाले बहुत लोगों को और यहाँ तक कि साधुओं को भी इसका रूप प्यारा लगता है। हे भगवन्! इसका क्या कारण है? पूर्व भव में यह कौन था? इसने कौन सा उत्तम दान दिया था ? क्या भोजन किया था और कौन से शुभ आचरण का पालन किया था जिसके कारण इसको यह उदार मनुष्य ऋद्धि प्राप्त हुई है?
महावीर स्वामी का समाधान
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एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणाउरे णामं णयरे होत्था । रिद्धित्थिमिय समिद्धे वण्णओं । तत्थ णं हत्थिणाउरे यरे सुमुहे णामं गाहावई परिवसइ । अड्डे दित्ते विच्छिण्ण-विउल भवणसयणासण-जाण-वाहणाइण्णे बहुधण - बहुजायरूवरयए आओगपओगसंपत्ते विच्छडिय-पउरभत्तपाणे बहुदासीदास - गोमहिस- गवेलगप्पभूए बहुजणस्स अपरिभूए ।
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