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प्रथम अध्ययन - स्वप्न निवेदन
२१७ ........................................................... भत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि णिसीयइ, णिसीइत्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया अदीणसत्तुं रायं ताहिं इट्टाहिं कंताहिं जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी-॥१७॥
- कठिन शब्दार्थ - मियमहुरमंजुलाहिं - मृदु, मधुर और मंजुल, गिराहिं - शब्दों से; संलवमाणी - संभाषण करती हुई, अब्भणुण्णाया समाणी - आज्ञा देने पर, णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि - अनेक प्रकार के मणि और रत्नों से चित्रित, आसत्था - आश्वस्त-चलने के श्रम से रहित, वीसत्था - विश्वस्त-क्षोभ रहित, सुहासणवरगया - सुख पूर्वक आसन पर बैठी हुई।
भावार्थ - वहाँ पहुँच कर उन इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, अभिराम, उदार, कल्याणकारी, शिवकारी, धन्यकारी, मंगलकारी, सश्रीक, मृदु, मधुर और मंजुल शब्दों से सम्भाषण करती हुई धारिणी रानी ने अदीनशत्रु राजा को जगाया, जगा कर अदीनशत्रु राजा के द्वारा आज्ञा देने पर अनेक प्रकार के मणि और रत्नों में चित्रित भद्रासन पर बैठ गई, बैठ कर आश्वस्त और विश्वस्त होकर यानी चलने के श्रम और क्षोभ को मिटा कर सुख पूर्वक आसन पर बैठी हुई वह धारिणी रानी उन इष्टकारी, कांतकारी यावत् मधुर शब्दों के द्वारा संभाषण करती हुई अदीनशत्रु राजा से इस प्रकार कहने लगी - . एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणवट्टिए तं चेव जाव णिययवयणमइवयंतं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा। तण्णं देवाणुप्पिया! एयस्स उरालस्स जाव महासुविणस्स के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ॥१७६॥
कठिन शब्दार्थ - मण्णे - मुझे, के - क्या, फलवित्तिविसेसे - फल विशेष, भविस्सइहोगा।
भावार्थ - इस प्रकार निश्चय ही हे देवानुप्रिय! आज मैं उस प्रकार की अर्थात् पुण्यात्माओं के शयन करने योग्य यावत् शरीर के प्रमाण वाली और दोनों तरफ तकिया से युक्त शय्या पर सोती हुई थी। ऐसे समय में स्वप्न में अपने मुख में प्रवेश करते हुए सिंह को देख कर जागृत हुई तो हे देवानुप्रिय! इस उदार यावत् महास्वप्न का मुझे क्या कल्याणकारी फल विशेष होगा?
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