Book Title: Vipak Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 290
________________ प्रथम अध्ययन - भगवान् महावीर स्वामी का वर्णन २६६ ........................................................... सुंदर आकार वाली, उत्तम और गूढ गुल्फ यानी पैर की टकनियां, सुपइट्ठिय कुम्मचारुचलणेसुंदर और कछुए के समान उन्नत पैर, अणुपुव्वसुसंहयंगुलीए - यथायोग्य छोटी बड़ी और एक दूसरे से मिली हुई अंगुलियां, उण्णयतणुतंबणिद्धणक्खे - तांबे के समान कुछ कुछ लाल, पतले उन्नत और चिकने पैर के नख, रत्तुप्पलपत्तमउय सुकुमाल कोमलतले - लाल कमल के पत्ते के समान लाल कोमल और सुंदर पैरों के तले, णगणगरमगरसागरचक्कंकवरंकमंगलंकियचलणे - पर्वत, नगर, मगर, सागर, रथ का पहिया और अन्य और भी श्रेष्ठ तथा मांगलिक चिह्नों से अंकित पैर, हुयवयणिभूमजलिय तडिय तरुण रवि किरण सरिस तेए - धूएं रहित अग्नि, बिजली और दोपहर के सूर्य के समान उनके शरीर का तेज था। __भावार्थ - तीर्थंकर भगवान् की दाढ़ी और मूंछ के बाल अवस्थित थे अर्थात् बढ़ते न थे किन्तु जितने शोभनिक मालूम हों उतने ही रहते थे। उनकी दाढ़ी भरी हुई, शुभ लक्षण युक्त और सिंह की दाढ़ी की तरह विस्तीर्ण थी। उनकी गर्दन चार अंगुल प्रमाण और शंख जैसी उत्तम थी। उनके कंधे महिष, सूअर, शार्दुलसिंह, बैल और गजेन्द्र के कंधों के समान यथाप्रमाण और विस्तीर्ण थे। उनके कंधे यज्ञ के स्तंभ के समान लम्बे, चौड़े, मोटे और मनोहर थे। उनके हाथ का. पुणचा यानी कलाई मोटी, सुंदर, आकार वाली, सुसंगत, उत्तम, पुष्ट, स्थिर और मजबूत जोड़ वाली थी। उनकी भुजाएं नगर के किंवाड़ की आगल के समान थीं वे ऐसी मालूम पड़ती थीं जैसे अपने इच्छित स्थान को जाते हुए नागराज का शरीर हो। उनकी हथली उन्नत, कोमल, लाल मांसल यानी पुष्ट सुंदर और सामुद्रिक शास्त्र के शुभ चिह्नों से युक्त थी। उनकी अंगुलियों के बीच में छेद नहीं पड़ते थे। अंगुलियाँ स्थूल, कोमल और सुंदर थीं। अंगुलियों के नख तांबे की तरह कुछ कुछ लाल, पतले, पवित्र, चमकीले और चिकने थे। उनके हाथ की रेखाएं चन्द्रमा के समान आकार वाली, सूर्य के समान आकार वाली, शंख के समान आकार वाली और चक्र के आकार वाली तथा दाहिनी तरफ घूमे हुए स्वस्तिक के आकार वाली थीं। चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, दिशा और दक्षिणावर्त स्वस्तिक के आकार वाली रेखाएं थीं। उनका वक्षस्थल सोने की शिला के समान, उज्ज्वल, शुभ, समतल, पुष्ट विस्तीर्ण और अत्यंत विशाल था। उनका वक्षस्थल श्रीवत्स के चिह्न से शोभित था। उनका शरीर मांसल यानी भरा हुआ था। इसीलिए पीठ की हड्डी दिखाई नहीं देती थी। उनका शरीर सोने की सी कांतिवाला था तथा सुंदर और रोग रहित था। उनका शरीर उत्तम पुरुष के १००८ लक्षणों से युक्त था। उनके पसवाड़े क्रमशः पतले होते गये थे। शरीर के प्रमाण के अनुसार ही उनके पसवाडे थे। वे उचित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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