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विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध
स्वप्न निवेदन तएणं सा धारिणी देवी अयमेवारूवं उरालं जाव सस्सिरीयं महासुविणं ... पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठ जाव हियया धाराहयकलंबपुप्फगं विव . समूससियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ सयणिज्जाओ अब्भुट्टित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव अदीणसत्तुस्स रण्णो सयणिज्जे तेणेव . उवागच्छइ॥१७४॥
कठिन शब्दार्थ - हट्टतुट्ठ - हर्षित और संतुष्ट, धाराहयकलंबपुप्फगं विव - जिस प्रकार मेघ की धारा से कदम्बवृक्ष का फूल खिल जाता है उसी प्रकार, समूससियरोमकूवा - रोमाञ्चित होती हुई, अतुरियं - शीघ्रता रहित, अचवलं - चपलता रहित, असंभंताए - . सम्भ्रान्तता रहित, अविलंबियाए - विलम्ब रहित, रायहंससरिसीए - राजहंस के समान।
भावार्थ - तदनन्तर (इसके पश्चात्) वह धारिणी रानी इस प्रकार के उदार यावत् सश्रीक महा स्वप्न को देख कर जागृत हुई। जागृत होने पर उसका हृदय हर्षित और संतुष्ट हुआ। जिस प्रकार मेघ की धारा से कदम्ब वृक्ष का फूल खिल जाता है उसी प्रकार रोमाञ्चित होती हुई धारिणी रानी उस स्वप्न का अवग्रह यानी स्मरण करने लगी, स्मरण करके अपनी शय्या से उठी, शय्या से उठ कर शीघ्रता रहित, चपलता रहित, संभ्रान्तता रहित, विलंब रहित, राजहंस की तरह मंद मंद गति से गमन करती हुई वह धारिणी रानी जहाँ पर अदीनशत्रु राजा की शय्या थी वहीं पर गई।
विवेचन - सिंह के स्वप्न को देख कर महासती धारिणी अत्यंत हर्षित हुई। वह स्वप्न राजा को सुनाने के लिए रानी अपने शयनागार से निकल कर राजा के पास पहुँची।।
तेणेव उवागच्छित्ता अदीणसत्तुं रायं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगलाहिं सस्सिरियाहिं मियमहुरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेइ, पडिबोहित्ता अदीणसत्तुणा रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी णाणामणिरयण
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