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प्रथम अध्ययन - स्वप्न पाठकों द्वारा फलादेश
२३३ ........................................................... ठीक नहीं है। जहाँ स्नान के विस्तार को संकोच कर रखा गया है वहाँ 'कयबलिकम्मा' शब्द दिया गया है। अतः प्रस्तुत सूत्र में भी इसका यही अर्थ है कि - 'स्नान संबंधी सारे कार्य तिलक छापे आदि किये।' ____ नोट:- विशेष जानकारी के लिए संघ द्वारा प्रकाशित “श्री लोकाशाह मत-समर्थन" का 'तुगिया के श्रावक' प्रकरण (पृ० ३५-३६) देखें।
तए णं से अदीणसत्तू राया जवणियंतरियं धारिणीं देवीं ठवेइ, ठवित्ता पुप्फफल पडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! धारिणी देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि जाव महासुविणं पासित्ताणं पडिबुद्धा। तं एयस्स णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव सस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ?॥१८॥ ___कठिन शब्दार्थ - जवणियंतरियं - पर्दे के भीतर, पुप्फफलपडिपुण्णहत्थे - हाथ में फूल और फल लेकर, परेणं - उत्कृष्ट।
भावार्थ - इसके पश्चात् उस अदीनशत्रु राजा ने धारिणी रानी को पर्दे के भीतर बैठाया, बैठा कर हाथ में फूल और फल लेकर उत्कृष्ट विनय से उन स्वप्न पाठकों से इस प्रकार कहा कि - "हे देवानुप्रियो! आज पुण्यशाली पुरुषों के शयन करने योग्य शय्या पर सोती हुई धारिणी
रानी सिंह का महास्वप्न देख कर जागृत हुई है तो हे देवानुप्रियो! इस उदार यावत् सश्रीक • महास्वप्न का मुझे क्या मंगलमय फल होगा?"
. स्वप्न पाठकों द्वारा फलादेश - तए णं ते सुमिणपाढगा अदीणसत्तुस्स रण्णो एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियया तं सुमिणं सम्मं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता ईहं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता अण्णमण्णेणं सद्धिं संचालेंति, संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा अदीणसत्तुस्स रणो पुरओ सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा, उच्चारेमाणा एवं वयासी, एवं खलु अम्हं सामी! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा तीसं महासुमिणा बावत्तरि सव्वसुमिणा दिट्ठा। तत्थ णं सामी! अरहंतमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा अरहंतंसि वा चक्कवटिसि ।
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