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विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध
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___ तदनन्तर सुधर्मा स्वामी, जम्बू अनगार से इस प्रकार बोले - 'हे जम्बू! उस काल और उस समय हस्तिशीर्ष नामक एक ऋद्ध - भवन आदि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित - स्वचक्र
और परचक्र के भय से रहित तथा समृद्ध – धन धान्यादि से परिपूर्ण नगर था। उस नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा के मध्य ईशान कोण में पुष्पकरण्डक नाम का उद्यान था जो कि सर्व ऋतुओं में होने वाले फल, पुष्पादि से युक्त था। वहां कृतवनमालप्रिय यक्ष का यक्षायतन था जो कि दिव्य अर्थात् प्रधान एवं परम सुंदर था। उस हस्तिशीर्ष नगर में अदीनशत्रु नाम का राजा था जो कि हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। उस अदीनशत्रु राजा की धारिणी प्रमुख अर्थात धारिणी है प्रधान जिनमें ऐसी हजार रानियाँ अन्तःपुर में थीं।
विवेचन - मूल पाठ में आये हुए 'रिद्ध०' यहां के बिंदु से सूत्रकार को निम्न पाठ अभिष्ट है-“त्थिमियसमिद्धे पमुइय जणजाणवए आइण्णजणमणुस्से हलसयसहस्स संकिट्ठ विकिट्ठ लट्ठपण्णत्तसेउसीसे कुक्कुडसंडेयगामपउरे उच्छुजवसालिकलिए गोमहिसगवेलगप्पभूए आयारवंतचेइय-जुवइ-विविह-सण्णिविट्ठबहुले उक्कोडिय-गायगंठिभेय-भडतक्करखंडरक्खरहिए खेमे णिरुवहवे सुभिक्खे वीसत्थसुहावासे अणेगकोडिकुटुंबियाइण्ण णिव्वुयसुहे णड-णदृग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंवय-कहगपवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंखतूणइल्ल-तुंब-वीणिय अणेगतालायराणुचरिये आरामुज्जाणअगड-तलाग-दीहियवाप्पिणिगुणोववेए णंदणवण-सण्णिभप्पगासे उव्विद्धविउल-गंभीर-खायफलिहे चक्कगयमुसुंढि-ओरोहसबग्धि-जमल-कवाड-घण-दुप्पवेसे धणुकुडिलवंक-पागारपरिक्खित्ते कविसीसग-व-रइयसंठिय विरायमाणे अद्यालय-चरिय-दार-गोपुर-तोरण-उण्णयसुविभत्तरायमग्गे छेयायरिय-रइय-दढ-फलिहइंदकीले विवणिवणिच्छेत्त-सिप्पियाइण्णाणिव्वुयसुहे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर चउम्मुह महापहेसु पणियावण-विविहवत्थुपरिमंडिए सुरम्मे णरवइ-पविइण्ण-महिवइपहे अणेगवर-तुरग-मत्त-कुंजर-रह-पहकर सीय-संदमाणीया-इण्णजाणजुग्गे विमउल-णव-णलिणि-सोभियजले पंडुरवर-भवणसण्णिमहिये उत्ताण-णयण-पेच्छणिज्जे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।"
इन पदों का भावार्थ इस प्रकार है -
वह नगर ऋद्ध - भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित - स्वचक्र और परचक्र के भय से विमुक्त तथा समृद्ध - धन धान्यादि से परिपूर्ण था। उसमें रहने वाले लोग तथा जानपदबाहर से आए हुए लोग, बहुत प्रसन्न रहते थे। वह मनुष्य समुदाय से आकीर्ण-व्याप्त था,
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