________________
दसवां अध्ययन - अंजूश्री की महावेदना
.
१६६
समाणी सुक्का भूक्खा णिम्मंसा कट्ठाई कलुणाई वीसराई विलवइ। एवं खलु गोयमा! अंजूदेवी पुरापोराणाणं जाव विहरइ॥१६६॥ ___कठिन शब्दार्थ - जोणिसूले - योनि शूल-योनि में होने वाली असह्य वेदना, परिणामेमाणा- परिणाम को प्राप्त कर, उवसामित्ताए - उपशांत करने में, अभिभूया - अभिभूत-युक्त, कट्ठाई - कष्ट हेतुक, विलवइ - विलाप करती है। ___ भावार्थ - तदनन्तर उस अंजूदेवी के किसी अन्य समय में योनिशूल नामक रोग उत्पन्न हुआ। तब विजयमित्र राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रियो! तुम वर्धमानपुर नगर में जा कर वहां के त्रिपथ यावत् सामान्य मार्गों में इस प्रकार उद्घोषणा करो कि अंजूश्री देवी की योनि में तीव्र वेदना उत्पन्न हो गई है अतः जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र आदि उसे उपशांत कर देगा तो राजा विजयमित्र उसे विपुल धन प्रदान करेंगे।
तदनन्तर राजाज्ञा से अनुचरों द्वारा की गई इस उद्घोषणा को सुन कर नगर के बहुत वैद्य, वैद्यपुत्र आदि विजयमित्र राजा के पास आते हैं और आकर अंजूदेवी के पास उपस्थित होते हैं तथा औत्पातिकी आदि बुद्धियों के द्वारा परिणाम को प्राप्त कर विविध प्रकार के प्रयोगों से अंजूदेवी के योनिशूल को उपशांत करने का प्रयत्न करते हैं किंतु वे अंजूदेवी के रोग को उपशांत करने में सफल नहीं हो सके। तदनन्तर जब वे अनुभवी वैद्य आदि अंजूश्री के योनिशूल को उपशांत करने में समर्थ नहीं हो सके तब वे खिन्न, श्रान्त और हतोत्साहित हो जिधर से आये थे उसी दिशा में वापिस चले गये। तत्पश्चात् अंजूश्री देवी उस योनिशूल की वेदना से दुःखी होकर सूखने लगी, भूखी रहने लगी और मांस रहित हो कर कष्ट, करुणा युक्त और दीनतापूर्ण वचनों से विलाप करती हुई समय व्यतीत करने लगी।
' इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम! अंजूश्री अपने पूर्व संचित पाप कर्मों के अशुभ फल को भोग रही है। - विवेचन - अंजूदेवी के जब तक शुभ कर्मों का उदय रहा तब तक वह विजयमित्र राजा के साथ सुखोपभोग करती रही किंतु जब अशुभ कर्मों के उदय से योनिशूल रोग उत्पन्न हुआ तो वह उस तीव्र वेदना को सहन नहीं कर पाई। राजा विजयमित्र एवं वैद्यपुत्रों आदि के रोग शांत करने के सारे उपाय जब निष्फल हुए तो अंजूश्री असह्य वेदना से रात दिन विलाप करती हुई जीवन यापन करती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org