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उंबरदत्ते णामं सत्तमं अज्झयणं
उम्बरदत्त नामक सातवां अध्ययन . षष्ठ अध्ययन में नन्दिषेण का जीवन वृत्तांत देने के बाद सूत्रकार इस सातवें अध्ययन में भी एक ऐसे ही व्यक्ति का जीवन वर्णन कर रहे हैं जो मांसाहारी था और मांसाहार जैसी अधम पाप पूर्ण वृत्तियों का उपदेश करने वाला था। प्रस्तुत अध्ययन का प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
उत्क्षेप-प्रस्तावना जइ णं भंते!.....सत्तमस्स उक्खेवो एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं पाडलिसंडे णयरे, वणसंडे णामं उजाणे, ऊंबरदत्तो जक्खो। तत्थ णं पाडलिसंडे णयरे सिद्धत्थे राया। तत्थ णं पाडलिसंडे णयरे सागरदत्ते सत्थवाहे होत्था अड्डे० गंगदत्ता भारिया। तस्स णं सागरदत्तस्स पुत्ते गंगदत्ताए भारियाए अत्तए उंबरदत्ते णामं दारए होत्था अहीण जाव पंचिंदियसरीरे।
तेणं कालेणं तेणं समएणं० समोसरणं जाव परिसा पडिगया॥११॥' भावार्थ - सप्तम अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् समझ लेना चाहिये।
इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू! उस काल और उस समय में पाटलिपंड नाम का एक नगर था। वहाँ वनखण्ड नामक उद्यान था। उस उद्यान में उम्बरदत्त नामक यक्ष का यक्षायतन था। उस नगर में सिद्धार्थ नामक राजा राज्य करते थे। उस पाटलिपंड नगर में सागरदत्त नाम का एक सार्थवाह था जो धनाढ्य यावत् प्रतिष्ठित था। उसकी गंगादत्ता नाम की भार्या थी। उस सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र गंगादत्ता भार्या का आत्मज उम्बरदत्त नामक बालक था जो कि अन्यून एवं निर्दोष पंचेन्द्रिय शरीर वाला था। .
उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वनखंड नामक उद्यान में पधारे। परिषद् और राजा उनके दर्शनार्थ नगर से निकले और धर्मोपदेश सुन कर सभी वापस चले गये।
विवेचन - सुधर्मा स्वामी के मुखारविन्द से छठे अध्ययन का वर्णन सुनने के बाद जंबूस्वामी पुनः पूछते हैं कि -
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