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. विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ••••••••••••••••••••...................................... ठीक उसी तरह भगवान् गौतम भी रसलोलुपी न होने से आहार को मुख में रख कर बिना चबाए ही अंदर पेट में उतार लेते थे। सारांश यह है कि भगवान् गौतम भी बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भांति सीधे ही ग्रास को मुख में डाल कर बिना किसी प्रकार के चर्वण से अंदर कर लेते थे। - इस कथन से भगवान् गौतम स्वामी में रसगृद्धि के अभाव को सूचित करने के साथ उनके इन्द्रिय दमन और मनोनिग्रह को भी व्यक्त किया गया है तथा आहार का ग्रहण भी वे धर्म के साधन भूत शरीर को स्थिर रखने के निमित्त ही किया करते थे न कि रसनेन्द्रिय की तृप्ति के लिए, इस बात का भी स्पष्टीकरण उक्त कथन से भलीभांति हो जाता है।
पूर्वभव पृच्छा तए णं से भगवं गोयमे दोच्चंपि छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ जाव पाडलिसंड णयरं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसइ तं चेव पुरिसं पासइ कच्छुल्लं तहेव जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। __तए णं से गोयमे तच्चंपि छट्ठक्खमणपारणगंसि तहेव जाव पच्चस्थिमिल्लेणं दुवारेणं अणुपविसमाणे तं चेव पुरिसं कच्छुल्लं....पास० चोत्थं पि छ? उत्तरेणं इमेयारूवे अझथिए समुप्पण्णे-अहो णं इमे पुरिसे पुरापोराणाणं जाव एवं.. वयासी-एवं खलु अहं भंते! छटुक्खमणपारणगंसि जाव रीयंते जेणेव पाडलिसंडे णयरे तेणेव उवागच्छामि उवागच्छित्ता पाडलिसंडंणयरं पुरथिमिल्लेणं दुवारेणं अणुपविडे, तत्थ णं एगं पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव कप्पेमाणं० अहं दोच्चछट्टक्खमण पारणगंसि दाहिणिल्लेणं दुवारेणं.....तच्चछट्टक्खमण पच्चत्थिमेणं तहेव० अहं चोत्थछट्ठ० उत्तरदुवारेणं अणुप्पविसामि तं चेव पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव वित्तिं कप्पेमा० विह० चिंता मम सुव्यभवपुच्छा० वागरे॥१२१॥
भावार्थ - तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी ने दूसरी बार बेले के पारणे के निमित्त प्रथम प्रहर में यावत् भिक्षार्थ गमन करते हुए पाटलिपंड नगर के दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया
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