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विपाक सूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध
तं सेयं खलु
अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा एत्तो एगमवि ण पत्ता, मम कल्लं जाव जलते सागरदत्तं सत्थवाहं आपुच्छित्ता सुबहुं पुप्फ-वत्थ-गंधमल्लालंकारे गहाय बहुमित्त - णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणमहिलाहिं सद्धिं पाडलिसंडाओ णयराओ पडिणिक्खमित्ता बहिया जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छित्तए तत्थ णं उंबरदत्तस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फच्चर्ण करिता जाणुपायवडियाए ओवायइत्तए - जड़ णं अहं देवाणुप्पिया! दारयं वा दारियं वा पयामि तो णं अहं तुब्भं जायं च दायं च भायं च अक्खय- णिहिं च अणुवह इस्सामि त्तिकट्टु ओवाइयं उवाइणित्तए, एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं सद्धिं जाव ण पत्ता, तं इच्छामि णं, देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया जाव उवाइणित्तए ॥ १२६ ॥
कठिन शब्दार्थ - जायं - याग देवपूजा, दायं - दान देय अंश, भागं - भाग-लाभ का अंश, अक्खयणिहिं - अक्षयनिधि - देवभंडार, अणुवइस्सामि - वृद्धि करूंगी, ओवाइयं - उपयाचित- इष्ट वस्तु की, उवाइणित्तए - प्रार्थना करने के लिये ।
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भावार्थ - मैं अधन्या, अपुण्या, अकृतपुण्या हूं क्योंकि मैं इन पूर्वोक्त बाल सुलभ चेष्टाओं में से एक को भी प्राप्त नहीं कर सकी हूं। अतः मेरे लिये यही श्रेय हितकर है कि मैं कल प्रातःकाल सूर्य के उदय होते ही सागरदत्त सार्थवाह से पूछ कर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकार लेकर बहुत सी मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, संबंधिजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषंड नगर से निकल कर बाहर उद्यान में जहां उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन है वहां जाकर उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह - बड़ों के योग्य पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नत मस्तक हो कर इस प्रकार याचना (प्रार्थना) करूं 'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी जीवित रहने वाले बालक अथवा बालिका को जन्म दूं तो मैं तुम्हारे याग (देवपूजा), दान, भाग - लाभ अंश और देव भंडार में वृद्धि करूंगी।'
इस प्रकार उपयाचित- इष्ट वस्तु की प्रार्थना करने के लिये निश्चय किया, निश्चय करके प्रातःकाल सूर्य के उदित होने पर जहां पर सागरदत्त सार्थवाह था वहां पर आई, आर
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