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आठवां अध्ययन - भविष्य-पृच्छा
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विवेचन - मानव की यह कितनी विचित्र दशा है कि वह पुण्य का फल-सुख को चाहता है किंतु पुण्य का कार्य नहीं करना चाहता और इसके विपरीत पाप के फल-दुःख को नहीं चाहता है फिर भी पापाचरण का त्याग नहीं करता, फलस्वरूप पाप का फल भोगते हुए वह छटपटाता है। शौरिकदत्त भी उन्हीं व्यक्तियों में से था जो पाप करते हुए तो विचार नहीं करता किंतु पाप का फल भोगते हुए रोता चिल्लाता हुआ दुःखी होता है।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविंद से सौरिकदत्त का अतीत और वर्तमान जीवन वृत्तांत सुन कर गौतमस्वामी ने उसके भविष्य-जीवन के प्रति अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो प्रभु ने भावी जीवन विषयक जो कुछ फरमाया वह भावार्थ से स्पष्ट है। सम्यक्त्व की प्राप्ति और सम्यक्त्व सहित चारित्र का सम्यक् पालन ही कर्म बंधनों को काट कर मोक्ष प्राप्ति कराने वाला है। शौरिकदत्त भी इसी मार्ग को अपना कर अंत में जन्म, जरा और मरण के दुःखों से मुक्ति पायेगा। ___अध्ययन की समाप्ति पर आर्य सुधर्मा स्वामी ने जो कुछ फरमाया। उसे सूत्रकार ने
"णिक्रोवो" - निक्षेप पद में गर्भित किया है जिसका भाव इस प्रकार है - ... हे जम्बू! यावत् मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस दुःखविपाक सूत्र के
आठवें अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। हे जम्बू! जैसा मैंने भगवान् के . मुखारविंद से सुना है, वैसा ही तुम्हें सुनाया है। इसमें मेरी कोई कल्पना नहीं है। ___शौरिकदत्त के इस अध्ययन से हमें यही शिक्षा ग्रहण करनी है कि हिंसा बुरी है, दुःखों की जननी है, पाप कर्म का बंधन कराने वाली है अतः सुखाभिलाषी व्यक्ति को हिंसा एवं हिंसक व्यापार से बचना चाहिये।
|| अष्टम अध्ययन संपूर्ण॥
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