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विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्धं
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विजयपुर नगर के नरेश कनकरथ के राजवैद्य धन्वन्तरि के आयुर्वेद संबंधी विशदज्ञान और उसकी चिकित्सा प्रणाली का वर्णन करने के बाद उसकी हिंसक मनोवृत्ति का परिचय दिया गया है।
__ नरक में उपपात तए णं से धण्णंतरी वेज्जे एयकम्मे० सुबहुं पावं कम्मं समज्जिणित्ता बत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं. बावीससागरोव० उववण्णे॥१२३॥
भावार्थ - तत्पश्चात् वह धन्वंतरि वैद्य इस पापमय कर्म में निपुण, प्रधान तथा इसी को अपना विज्ञान एवं सर्वोत्तम आचरण बनाये हुए अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके बत्तीस सौ (३२००) वर्ष की परमायु को भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुआ।
विवेचन - धन्वंतरि वैद्य ने अपने हिंसा प्रधान चिकित्सा व्यवसाय में मत्स्य आदि अनेक जाति के निरपराध मूक प्राणियों के प्राणहरण का उपदेश देकर एवं उनके मांस आदि से अपने शरीर का पोषण कर जिस पाप राशि का संचय किया उसका फल नरकगति के सिवाय और क्या हो सकता है? अतः सूत्रकार ने मृत्यु के बाद उसका छठी नारकी में जाने का उल्लेख किया है। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि मांसाहार, दुर्गतियों का मूल है।
गंगादत्ता की व्यथा तए णं सा गंगदत्ता भारिया जाय-णिंदुया यावि होत्था जाया-जाया दारगा विणिहायमावज्जंति। तए णं तीसे गंगदत्ताए सत्थवाहीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयं अज्झथिए० समुप्पण्णे-एवं खलु अहं सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूई वासाइं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरामि, णो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि॥१२४॥
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