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आठवां अध्ययन - श्रीयक की हिंसक वृत्ति
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ह्रस्व छोटे-छोटे खण्ड, हिमपक्काणि - हिम-बर्फ से पकाए गए हैं, जम्म - जम्म से अर्थात् स्वतः ही, घम्म - धर्म-गर्मी, मारुय - मारुत-वायु से, पक्काणि - पकाये गये हैं, कालाणिकाले किये गये हैं, हेरंगाणि - हिंगुल-सिंगरफ के समान लाल वर्ण वाले किये गये हैं, महिट्ठाणि - जो तर्क संस्कारित हैं, आमलगरसियाणि - आमलक-आंवले के रस से भावित, मुद्दिया रसियाणि - मृद्वीका-द्राक्षा रस से संस्कारित, कविट्ठरसियाणि - कपित्थ-कैथ रस से भावित, दालिमरसियाणि - अनार रस से भावित, मच्छरसियाणि - मत्स्य रस से संस्कारित, तलियाणि - तैलादि में तले हुए, भज्जियाणि - अंगार आदि पर भूने हुए, सोल्लियाणि - शूलाप्रोत अर्थात् शूल में पिरो कर पकाए गए, हरियसागं - हरे साग, एणेज्जरसए - एणो- : मृगों के मांसों के रस, भोयणमंडवंसि - भोजन मंडप में, भोयणवेलाए - भोजन के समय।
भावार्थ - तदनन्तर वह श्रीयक रसोइया अनेक जलचर और स्थलचर आदि जीवों के मांसों को लेकर छुरी से उनके सूक्ष्म खण्ड, वृत्त खण्ड, दीर्घ खण्ड और ह्रस्व खण्ड इस प्रकार के अनेक विध खण्ड किया करता था। उन खण्डों में कई एक को हिम (बर्फ) में पकाता था, कई एक को अलग रख देता जिससे वे खण्ड स्वतः ही पक जाते थे, कई एक को धूप से एवं .. कई एक को हवा के द्वारा पकाता था। कई एक को कृष्ण वर्ण वाले एवं कई एक को हिंगुल के वर्ण वाले किया करता था। वह उन खण्डों को तक्र संस्कारित, आमलक रस भावित, मृद्वीका (दाख) कपित्थ (कैथ) और दाडिम (अनार) के रसों से तथा मत्स्य रसों से भावित किया करता था। तत्पश्चात् उन मांस खण्डों में से कई एक को तैल में तलता, कई एक को अग्नि में भूनता तथा कई एक को शूला में पिरो कर पकाता था। इसी प्रकार मत्स्य मांसों के रसों को, मृगमांसों के रसों को, तित्तिर मांसों के रसों को यावत् मयूर मांसों के रसों को तथा बहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, तैयार करके महाराज मित्र के भोजन मंडप (भोजनालय) में ले जाकर महाराज मित्र को अर्पण (प्रस्तुत) किया करता था तथा स्वयं वह श्रीयक रसोइया उन पूर्वोक्त श्लक्ष्ण मत्स्य आदि समस्त जीवों के मांसों, रसों, हरितशाकों (जो कि शूलपक्व हैं, तले हुए हैं, भूने हुए हैं) के साथ छह प्रकार की सुरा आदि मदिराओं का आस्वादन आदि करता हुआ समय व्यतीत कर रहा था। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में श्रीद (श्रीयक) रसोइए की हिंसक वृत्तियों-हिंसा परायण व्यापार का वर्णन किया गया है।
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