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विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्धं ........................................................... जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उंबरदत्तस्स जक्खस्स आलोए पणामं करेइ, करेत्ता लोमहत्थं परामुसइ परामुसित्ता उंबरदत्तं जक्खं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दगधाराए अब्भुक्खेड़, अब्भुक्खेत्ता पम्हल० गायलट्ठी ओलूहेइ, ओलूहेत्ता सेयाई वत्थाई परिहेइ परिहेत्ता महरिहं पुप्फारुहणं वत्थारुहणं मल्लारुहणं गंधारुहणं चुण्णारुहणं करेइ, करेत्ता धूवं डहइ, डहित्ता जाणुपायवडिया एवं वयइ-जड़ णं अहं देवाणुप्पिया! दारगं वा दारियं वा पयामि तो णं......जाव उवाइणइ, उवाइणित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया॥१२८॥
कठिन शब्दार्थ - पुक्खरिणीए तीरे - पुष्करिणी के किनारे-तट पर, जलमज्जणं - जलमज्जन-जल में गोते लगाना, जलकीडं - जलक्रीड़ा, उल्लपडसाडिया - आर्द्रपट तथा शाटिका पहने हुए, लोमहत्थएण - लोमहस्तक से-मयूरपिच्छनिर्मित प्रमार्जिनी से, दगधाराए - जलधारा से, ओलूहेइ - पोंछती है, सेयाई - श्वेत, पुप्फारुहणं - पुष्पारोहण-पुष्पार्पण, वत्थारुहणं - वस्त्रारोहण-वस्त्रार्पण, मल्लारुहणं - मालार्पण, गंधारुहणं- गंधार्पणं; चुण्णारुहणंचूर्ण को अर्पण।
भावार्थ - तब सागरदत्त सार्थवाह से आज्ञा मिल जाने पर वह गंगादत्ता भार्या बहुत से पुष्प, वस्त्र, गंध-सुगंधित द्रव्य, माला और अलंकार लेकर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों संबंधिजनों एवं परिजनों की महिलाओं के साथ अपने घर से निकलती है, निकल कर पाटलिषंड नगर के मध्यभाग से निकलती है निकल कर जहां पुष्करिणी-बावड़ी का तट था वहां पर आती है, आकर पुष्करिणी के किनारे पर बहुत से पुष्पों, वस्त्रों, गंधों, मालाओं और अलंकारों को रखती है और पुष्करिणी में प्रवेश करके जलमज्जन और जलक्रीड़ा करती है। स्नान किये हुए कौतुक-मस्तक पर तिलक तथा मांगलिक कृत्य करके आर्द्र पट तथा शाटिका पहने हुए वह पुष्करिणी से बाहर आती है बाहर आकर उक्त पुष्प, वस्त्र आदि सामग्री को लेकर उम्बरदत्त के यक्षायतन में पहुंचती है। यक्ष का अवलोकन कर. लेने पर प्रणाम करके लोमहस्तक-मयूरपिच्छनिर्मित प्रमार्जनी से उम्बरदत्त यक्ष का प्रमार्जन करती है तत्पश्चात् जलधारा से उस यक्ष प्रतिमा को स्नान कराती है, फिर कषाय रंग वाले गेरू जैसे रंग से रंगे हुए सुगंधित एवं सरोमे-कोमल वस्त्र से उसके अंगों को पोंछती है, पोंछ कर श्वेत वस्त्र पहनाती है, पहना
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