________________
सातवां अध्ययन - गंगादत्ता की मनौती
सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी- 'हे स्वामिन्! मैंने तुम्हारे साथ मनुष्य संबंधी सांसारिक सुखों का उपभोग करते हुए आज तक एक भी जीवित रहने वाले बालक या बालिका को प्राप्त नहीं किया । अतः मैं चाहती हूं कि यदि आप आज्ञा दें तो मैं यावत् इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिये उम्बरदत्त यक्ष की प्रार्थना करूं अर्थात् मनौती मनाऊं ।'
सागरदत्त का मनोरथ
तणं से सागरदत्ते सत्थवाहे गंगदत्त भारियं एवं वयासी-ममंपिणं देवाणुप्पिए! एस चेव मणोरहे कहं णं तुमं दारगं वा दारियं वा पयाएज्जसि ? गंगदत्ताए भारियाए एयमट्टं अणुजाण ॥ १२७ ॥
भावार्थ - तदनन्तरं वह सागरदत्त गंगादत्ता भार्या से इस प्रकार बोला- 'हे देवानुप्रिये ! मेरा भी यही मनोरथ- कामना है कि तुम किसी भी तरह जीवित रहने वाले बालक या बालिका को जन्म दो ।' इतना कह कर गंगादत्ता भार्या को इस अर्थ प्रयोजन के लिये आज्ञा दे देता है अर्थात् उसके उक्त प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में गंगादत्ता भार्या के मनौती संबंधी विचारों का वर्णन किया गया है। इस कथा संदर्भ से नारी जीवन के मनोगत विचारों भावों का परिचय दिया गया है कि संतान के लिये नारियों में कितनी उत्कंठा होती है और वे उसकी प्राप्ति के लिये कितनी आतुरा एवं प्रयत्नशीला बनती है।
-
Jain Education International
१४६ ❖❖
गंगादत्ता की मनौती
तए णं सा गंगदत्ता भारिया सागरदत्तसत्थवाहेणं एयम अब्भणुण्णाया समाणी सुबहुं पुप्फ जाव महिलाहिं सद्धिं सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता पाडलिसंडं णयरं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुप्फ-वत्थगंध-मल्लालंकारं ठवेइ ठवेत्ता पुक्खरिणि ओगाहेइ ओगाहेत्ता जलमज्जणं करेइ करेत्ता जलकीडं करेइ करेत्ता व्हाया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता • उल्लपडसाडिया पुक्खरिणीओ पच्चुत्तरइ पच्चुत्तरित्ता तं पुप्फ० गिण्हइ गिण्हित्ता
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org