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द्वितीय अध्ययन - उत्पला की चिंता
हुए, भृष्ट-भुने हुए, शुष्क-स्वयं सूखे हुए और लवण-संस्कृत मांस के साथ सुरा, मधु, मेरक, जाति, सीधु और प्रसन्ना-इन मद्यों का सामान्य और विशेष रूप से आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती. है। काश! मैं भी उसी प्रकार अपने दोहद को पूर्ण करूं।
इस विचार के अनन्तर उस दोहद के पूर्ण न होने से वह उत्पला नामक कूटग्राह स्त्री सूख गई, बुभुक्षित हो गई, मांस रहित हो गई अर्थात् मांस के सूख जाने से शरीर की अस्थियां दिखने लग गई, शरीर शिथिल पड़ गया, तेज रहित हो गई, दीन तथा चिंतातुर मुखवाली हो गई, बदन पीला पड़ गया। नेत्र तथा मुख मुा गया। यथोचित पुष्प, वस्त्र, गंध माल्य, अलंकार और हार आदि का उपभोग नहीं करती हुई करतल मर्दित पुष्पमाला की तरह म्लान हुई उत्साह रहित यावत् चिंता ग्रस्त हो कर विचार कर ही रही थी।
... उत्पला की चिंता . इमं च णं भीमे कूडग्गाहे जेणेव उप्पला कूडग्गाहिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता ओहय जाव पासइ, पासित्ता एवं वयासी-किं णं तुमं देवाणुप्पिए!
ओहय जाव झियासि? तए णं सा उप्पला भारिया भीमं कूडग्गाहं एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया! ममं तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दोहले पाउन्भूए धण्णाणं ताओ० जाओ णं बहूणं गोरूवाणं ऊहेहि य जाव लावणेहि य सुरं च ३. आसाएमाणीओ० दोहलं विणेति, तए णं अहं देवाणुप्पिया! तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि जाव झियामि ॥४६॥
भावार्थ - इतने में भीम नामक कूटग्राह जहां पर उत्पला कूटाग्राहिणी थी वहां पर आया और आकर उसने यावत् चिंताग्रस्त उत्पला को देखा, देख कर कहने लगा कि - 'हे भद्रे! तुम इस प्रकार शुष्क निर्मास यावत् हतोत्साह हो कर किस चिंता में निमग्न हो रही हो?' तदनन्तर उत्पला नामक भार्या ने इस प्रकार कहा - 'हे स्वामिन्! लगभग तीन मास पूरे होने पर यह दोहद उत्पन्न हुआ कि वे मातायें धन्य हैं कि जो चतुष्पाद पशुओं के ऊधस् और स्तन आदि के लवण-संस्कृत मांस का सुरा आदि के साथ आस्वादन आदि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती है। तदनन्तर हे देवानुप्रिय! मैं उस दोहद के पूर्ण नहीं होने से शुष्क यावत् हतोत्साह होकर चिंता में निमग्न हूँ। अर्थात् उस दोहद का पूर्ण नहीं होना ही मेरी इस दशा का कारण है।
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