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उपासकाध्ययन प्रतिपादित नहीं किया है । और वह भी केवल १४५ श्लोकोंमें । गागरमें सागर इसोको कहते हैं ।
इन चार कल्पोंके पश्चात १६ कल्पोंमें सम्यग्दर्शनके आठों अंगोंमें प्रसिद्ध अंजनचोर, अनन्तमती, उद्दायन, रेवती रानो, जिनेन्द्र भक्तसेठ, वारिपेण, विष्णुकुमार मुनि और वज्र कुमार मुनिको रोचक कथाएं बडी प्रांजल गद्य में कही गयी हैं। रत्नकरण्ड (श्लोक १९-२०) में तो दो श्लोकोंके द्वारा केवल इन व्यक्तियों के नाम मात्र गिनाये हैं । अन्य किसी भी श्रावकाचारमें ये कथाएं नहीं पायी जाती। इन कथाओंसे पहले जो प्रत्येक अंगका वर्णन किया गया है उसमें भी अनेक महत्त्वपूर्ण बातें कही गयी है। उनका विवेचन अलगसे किया जायेगा। २१वें कल्पमें सम्यग्दर्शनके भेदोंका कथन करते हुए प्रारम्भमें गद्य-द्वारा सम्यक्त्वके बाह्य उत्पत्ति निमित्तोंको बतलाते हुए निसर्गज और अधिगमज भेदोंको स्पष्ट किया है। पश्चात् सर्वार्थसिद्धि में प्रतिपादित सराग वीतराग भेदों तथा उनके अभिव्यंजक प्रशमादिके स्वरूपको बतलाकर गुणभद्राचार्यके द्वारा आत्मानुशासनमें प्रतिपादित दस भेदोंका स्वरूप बतलाया है। आगे रत्नकरण्डकी शैलीमें सम्यक्त्वको महिमा बतलाते हुए निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप बतलाया है तथा अन्य भी अनेक उपयोगी बातें कही है। २२-२५ कल्पोंमें मद्य, मांस, मधु आदिके दोष बतलाते हुए चार कथाएं वर्णित हैं जिनमें मद्यपान और मांस-भक्षणके संकल्पकी बुराई और उनके त्यागकी भलाई बतलायी है।
२६-३२ कल्पोंमें पाँच अणुव्रतोंका वर्णन है और हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रहको बुराइयां बतलाते हुए पाँच कथाएँ प्रांजल गद्यशैलीमें वर्णित हैं; कथाएं बहुत ही रोचक और शिक्षाप्रद हैं । ३३वें कल्पमें तीन गणव्रतोंका कथन है।
. ३४वें कल्पसे सामायिक शिक्षाव्रतका वर्णन प्रारम्भ होता है। सोमदेवने सामायिकका अर्थ जिनपूजा सम्बन्धी क्रियाएं किया है। अतः ३४वें कल्पमें स्नानविधि, ३५ में समय समाचार विधि, ३६ में अभिषेक और पूजन विधि, ३७ में स्तवनविधि, ३८ में जपविधि, ३९ में ध्यानविधि और ४० कल्पमें श्रुताराधनविधि वर्णित है । इस तरहका वर्णन अन्य श्रावकाचारोंमें नहीं पाया जाता और इसलिए यह सारा हो वर्णन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । उसमें भी घ्यानविधि विशेष महत्त्वपूर्ण है। सोमदेवके पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें भी यह वर्णन नहीं मिलता।
... ४१वें कल्पमें प्रोषधोपवासका और ४२वें कल्पमें भोगोपभोग परिमाण व्रतका कथन है। ४३३ कल्पमें दानकी विधिका वर्णन विशेष महत्त्वपर्ण है।
४४वें कल्पके प्रारम्भमें श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंको संक्षेपमें बतलाकर यतियोंके लिए जैनेतर सम्प्रदायमें प्रचलित नामोंकी निरुक्तियां दी गयी है जो एक नयी वस्तु है।
४५वें कल्पमें सल्लेखनाका और ४६३ कल्पमें कुछ फुटकर बातोंका कथन है। इस तरह सोमदेवका उपासकाध्ययन कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है । इन कल्पोंमें चर्चित विशेष बातोंपर हम आगे प्रकाश डालेंगे। ... महत्त्व-यों तो सोमदेवसे पहले भी कुन्दकुन्दके चरित्र प्राभृत, तत्त्वार्थसूत्र तथा उसके टीका ग्रन्थों में, और पद्मपुराण, वरांगचरित, महापुराण आदि ग्रन्थोंमें श्रावकाचार वणित था, किन्तु श्रावकाचारके सम्बन्धमें एक रत्नकरण्ड श्रावकाचारको छोड़कर कोई अन्य स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं था। यह बात हम उपलब्ध साहित्यके पर्यालोचनके आधारपर कहते हैं।
सोमदेव और अमृतचन्द्र-अमृतचन्द्र सूरिका पुरुषार्थसिद्धयुपाय भी श्रावकाचारसे ही सम्बद्ध है किन्तु वह सोमदेवके उपासकाध्ययनका केवल अग्रज हो सकता है, क्योंकि वि. सं. १०५५ में रचे गये आचार्य जयसेनके धर्मरत्नाकर नामक ग्रन्थमें पुरुषार्थसिद्धयुपाय और सोमदेवके उपासकाध्ययन, दोनोंके ही पद्य भरपूर पाये जाते हैं। सोमदेवने अपना उपासकाध्ययन उससे ३९ वर्ष पहले वि. सं. १०१६ में रचकर समाप्त किया था। अमृतचन्द्र सूरिने अपना कोई समय निर्दिष्ट नहीं किया है। उनकी उत्तरावधि १०५५ ही मानी जाती है। उससे कितने समय पूर्व वह हुए हैं यह अभी निश्चित नहीं हो सका है। किन्तु इतना निश्चित है कि न तो सोमदेवके उपासकाध्ययनपर पुरुषार्थसिद्धयुपायका किंचित् भी प्रभाव परिलक्षित होता है और