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प्रस्तावना
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प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध जैनेतर आचार्योंका नामोल्लेख किया है। अनेक ऐतिहासिक दृष्टान्तों और पौराणिक आख्यानोंका उल्लेख किया है। इस सबसे सोमदेवके वैदूष्यका परिचय मिलता है। [४] उपासकाध्ययन
नाम-सोमदेवने यशस्तिलकके अन्तिम तीन आश्वासोंको उपासकाध्ययन नाम दिया है। अन्तिम तीथकर भगवान महावीरके उपदेशोंको उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरने जिन बारह अंगोंमें निबद्ध किया उनमें से सातवें अंगका नाम उपासकाध्ययन था और उसमें धावकके धर्मका कथन था। सोमदेवने भी सम्भवतया इसीसे उपासकाध्ययन नाम दिया। यह भाग यशस्तिलकका अंग होते हुए भी एक स्वतन्त्र ग्रन्थके समान है।
जैन साहित्यमें इस विषयपर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध है, किन्तु उनमें से किसी अन्यका नाम उपासकाध्ययन नहीं है, श्रावकाचार नाम ही अधिक व्यवहृत है। यथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अमितगति श्रावकाचार वसुनन्दि श्रावकाचार, मेधावी श्रावकाचार. आदि। चामुण्डरायने अपने चारित्रसारमें "उक्तं च 'उपासकांध्ययने" लिखकर एक श्लोक उद्धृत किया है, किन्तु वह श्लोक किसी उपलब्ध ग्रन्थमें नहीं मिलता। हाँ, उसीसे मिलता-जुलता श्लोक जिनसेनाचार्यके महापुराणके ३८वें पर्वमें अवश्य मिलता है। अतः चामुण्डरायके सामने कोई इस नामका ग्रन्थ अवश्य वर्तमान होना चाहिए जो अभी अनुपलब्ध है। और चूंकि चामुण्डराय सोमदेवके लघुसमकालीन थे अतः उनके द्वारा निर्दिष्ट उपासकाध्ययन अवश्य ही सोमदेवकृत उपासकाध्ययनके बादका नहीं हो सकता। किन्तु चूंकि वह अनुपलब्ध है अतः कहना होगा कि उपासकाध्ययन नामका यह एक ही श्रावकाचार उपलब्ध है।
विषयपरिचय-उपासकाध्ययन ४६ कल्पों में विभाजित है। १ प्रथम कल्पका नाम है "समस्तसमयसिद्धान्तावबोधन"। क्योंकि इसमें वैशेषिक, पाशुपत, कुलाचार्य, सांख्य, बौद्ध, जैमिनीय, चार्वाक, वेदान्ती आदि समस्त दर्शनोंको समीक्षा की गयी है। और केवल ४७ श्लोकोंमें ही इतनी मौलिक बातें कह दी गयी हैं जिन्हें ४७ पृष्ठोंमें भी कह सकना शक्य नहीं था। इससे प्रकट होता है कि सोमदेवने सभी दर्शनों और मतवादोंका तलस्पर्शी अध्ययन किया था।
२ दूसरे कल्पका नाम है, आप्तस्वरूप-मीमांसन । इसमें आप्तके स्वरूपकी मीमांसा करते हुए ब्रह्मा, विष्णु, शिव, बुद्ध और सूर्य आदिके देवत्वका युक्तिपूर्वक निरसन किया है, सम्भवतः सोमदेवके समयमें शैवमतका बहुत अधिक प्रचार था, इसीसे उन्होंने शिव और शैव सिद्धान्तोंका निराकरण विशेष रूपसे किया है।
३ तीसरे कल्पका नाम है, आगमपदार्थ-परीक्षण | इसको प्रारम्भ करते हए सोमदेवने कहा है कि पहले देवकी परीक्षा करनी चाहिए, पीछे उसके वचनोंकी परीक्षा करनी चाहिए। तत्पश्चात ही उसका पालन करना चाहिए । जो लोग देवका विचार किये बिना उसके वचनोंको मान लेते हैं वे अन्धे है। आगे जैन मान्य. ताओंका विवेचन करते हुए लिखा है कि दूसरे मतवादी जनोंके देव, शास्त्र और पदार्थव्यवस्थामें कोई दोष न पाकर जैन मुनियों में चार दोष लगाते है-१ वे स्नान नहीं करते, २ आचमन नहीं करते, ३ नंगे रहते हैं और ४ खड़े होकर भोजन करते हैं। सोमदेवने इन चारों ही बातोंका युक्तिपूर्वक समर्थन किया है।
४ चौथे कल्पका नाम है, मूढतोन्मथन । इसमें लोकमें प्रचलित मूढताओंका परदाफाश किया गया है। के मूहसाएं इस प्रकार हैं, सूर्यको अर्घ्य देना, ग्रहण में स्नान करना, संक्रान्ति में दान देना, सन्ध्यावन्दन करना, अग्निको पूजना, धर्मभावनासे नदी-समुद्रमें स्नान करना, वृक्ष स्तूप प्रथम ग्रासको वन्दना करना, गौके पृष्ठ भागको नमस्कार करना, गोमूत्रका सेवन, रत्न भूमि यक्ष शस्त्र पर्वत वगैरहको पूजना।
साधारणतया आप्त, आगम और तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा गया है किन्तु सोमदेवने उनके प्रसंगसे कितनी ही आवश्यक बातें इन चार कल्पोंमें कहो हैं। अन्य किसी भी श्रावकाचारमें इतना तत्त्वज्ञान
१. "ब्रह्म वारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानां सप्तमानाद् विनिःसृताः।"-पृ०१० २. केवल उत्तरार्द्धमें अन्तर है-“इल्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरवृद्धितः।"