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प्रस्तावना
इसमें एक वादीसे कहा गया है कि तुम समस्त दर्शनोंके तर्कमें अकलंकदेव नहीं हो, न आगमिक उक्तियोंमें हंससिद्धान्तदेव हो और न वचन-विलासमें पूज्यपाद हो, तब तुम इस समय सोमदेवके साथ कैसे वाद कर सकते हो ?
उसो प्रशस्तिके अन्तिम पद्यमें कहा गया है कि सोमदेवकी वाणी वादिरूपी मदोन्मत्त गजोंके लिए सिंहनादके तुल्य है । वादकालमें बृहस्पति भी उनके सम्मुख नहीं ठहर सकता।
सोमदेवने यशस्तिलकको उत्थानिकामें कहा है कि जैसे गाय घास खाकर दूध देती है वैसे ही जन्मसे शुष्क तर्कका अभ्यास करनेवाली मेरी बुद्धिसे काव्यधारा निःसत हुई है। इससे प्रकट होता है कि सोमदेवने अपना विद्याभ्यास तकसे आरम्भ किया और तर्क ही उनका वास्तविक व्यवसाय था। ताकिकचक्रवर्ती और वादीभपंचानन आदि उपाधियां भी इसी तथ्यका समर्थन करती हैं। अपने समयके अन्य अनेक विद्वानोंकी तरह उन्होंने भी अपनी शक्ति प्रतिपक्षी विद्वानोंके साथ शास्त्रार्थ करने में व्यय की थी। वास्तव में यह उस समयकी एक साधारण प्रवृत्ति थो और जैन परम्परामें उस कालमें हुए विद्वानोंके वादिराज, वादीभसिंह, वादिघरट्ट, वादिघंघल, परवादिमल्ल, वादिकोलाहल-जैसे विचित्र नामोंसे उसका समर्थन होता है।
सोमदेव तार्किक होनेके साथ जैन सिद्धान्तके भी दिग्गज विद्वान् थे। उनके यशस्तिलकका लगभग आधा भाग जैनधर्मके आचार और विचारोंके प्रतिपादन और समर्थनसे ओत-प्रोत है। उसके अन्तिम तीन
सोंमें जैन गहस्थके आचारका वर्णन है. इससे उन्हें ग्रन्थकारने उपासकाध्ययन नाम दिया है और वे ही तीनों आश्वास प्रस्तुत संस्करणमें सोमदेव उपासकाध्ययनके नामसे मुद्रित हैं। ... इस तरह तत्त्वज्ञानी और तार्किक सोमदेवने कविताको बाद में अपनाया; किन्तु जब अपनाया तो तनमनसे अपनाया। तभी तो उन्हें लिखना पड़ा,
"निद्रा विदूरयसि शाखरसं रुणसि सर्वेन्द्रियार्थमसमर्थविधि विधत्से ।
चेतश्च विभ्रमयसे कविते पिशाचि लोकस्तथापि सुकृती त्वदनुग्रहेण ॥” (१-४१) "हे पिशाचिनी कविते ! जो तेरे प्रेमपाशमें फंस जाता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है, शास्त्ररस जाता रहता है, सब इन्द्रियां बेकाम हो जाती हैं, चित्त विभ्रमित हो जाता है। फिर भी जिसपर तेरी कृपादृष्टि हो जाती है वह पुण्यशाली है।"
___सोमदेव उन्हीं पुण्यशालियोंमें हैं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उनका यशस्तिलक है । शब्द और अर्थ दोनों ही दृष्टियोंसे यशस्तिलकको व्युत्पत्तिकारकता अनुपम है।
___सोमदेवने अपनी इस कृतिमें अनेक अप्रसिद्ध शब्दोंका प्रयोग किया है। उनमें से बहतसे शब्द संस्कृत साहित्यमें अन्यत्र कहीं नहीं मिलते। इस दृष्टिसे यशस्तिलक संस्कृत शब्दोंके कोशका संवर्धन करने में परम सहायक हो सकता है। सोमदेवने पांचवें आश्वासके अन्त में लिखा है.
"अरालकालव्यालेन ये लोढा सांप्रतं तु ते।
शब्दाः श्रीसोमदेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ॥" अर्थात् भयानक कालरूपी सर्पके द्वारा निगल लिये गये शब्दोंका सोमदेवने उद्धार किया। और भी लिखा है,
"उद्धृत्य शास्त्रजलधेनितले निमग्नैः पर्यागतैरिव चिरादमिधानरत्नैः ।
या सोमदेवविदुषा विदिता विभूषा वाग्देवता बहतु संप्रति तामनर्धाम् ॥" १. आजन्मसमभ्यस्ताच्छुष्कात्तात्तणादिव ममास्याः । __ मतिसुरभेरभवदिदं सूक्तिपयः सुकृतिनां पुण्यैः ॥ २. किंचित् काव्यं श्रवणसुभगं वर्णनोदीर्णवर्ण, किंचित् वाच्योचितपरिचयं हृच्चमत्कारकारि ।
अत्रासूयेत् क इह सुकृती किन्तु युक्तं तदुक्तं, यद्युत्पत्त्यै सकलविषये स्वस्य चान्यस्य च स्पात्॥१-१६