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प्रस्तावना उक्त ताम्रपत्रमें वाद्यगके पुत्र अरिकेसरी चतुर्थके द्वारा शक संवत् ८८८ ( ९६६ ई० ) में शुभधाम नामके जिनालयके जीर्णोद्धारके लिए सोमदेवको एक गांव देनेका उल्लेख है । यह जिनालय लेबुल पाटक नामकी राजधानीमें वाद्यगने बनवाया था।
इससे यह स्पष्ट है कि ९६६ ई० में सोमदेव शुभधाम जिनालयके व्यवस्थापक थे और अपनी साहित्यिक प्रवृत्तिमें भी संलग्न थे; क्योंकि इस लेखेमें सोमदेवको यशोधरचरितके साथ-साथ 'स्याद्वादोपनिषद्' नामके एक अन्य ग्रन्थका भी रचयिता कहा है। उस समय सोमदेव प्रतिष्ठाके उच्च शिखरपर आसीन प्रतीत होते हैं क्योंकि अनुसार समस्त सामन्त और राजा उनके चरणोंमें नमस्कार करते थे और उनका यशरूपी कमल समस्त विद्वज्जनोंके कानोंका आभूषण बना हुआ था।
किन्तु इस ताम्रलेखकी दो बातें विशेष विचारणीय है। प्रथम इसमें सोमदेवके दादा गुरु यशोदेवको गोड़संघका लिखा है जब कि सोमदेवने उन्हें देवसंघका बतलाया है। दूसरे अरिकेसरी चतुर्थकी राजधानीका नाम लॅबुल पाटक लिखा है। जब कि सोमदेवने उसके पिता बडिगको राजधानीका नाम गंगधारा लिखा है। इसके साथ ही यह बात भी उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार सोमदेवने वाद्यगके पिता अरिकेसरीको कृष्णराज तृतीयका सामन्त बतलाया है ठीक उसी प्रकार उक्त लेखमें भी वाद्यगके पुत्र अरिकेसरीको उन्हींका सामन्त बतलाया है। समकालीन विद्वान्
दसवीं शताब्दीका समय संस्कृत प्राकृत और कन्नड़ जैन साहित्यका समृद्धिकाल था, कृष्णराज तृतीयके राज्यकाल ( ९३९ से ९६८ ई० ) के समयको हो यदि लें तो उसीमें हमें अनेक विशिष्ट विद्वानों और ग्रन्थकारोंके परिचयका सौभाग्य प्राप्त होता है । ९४१ ई. में प्रसिद्ध कन्नड़ कवि पम्पने अपने आदिपुराण और विक्रमार्जुनविजय नामक काव्योंकी रचना को यो। सन् ९५० के लगभग उस शताब्दोके दूसरे महान् कन्नड़ कवि पोन्नने कृष्णराज तृतीयके संरक्षकत्वमें शान्तिपुराणको रचना की थी। कन्नड़ और संस्कृत भाषामें प्रवीणताके लिए कृष्णराजने कवि पोनको 'उभयकविचक्रवर्ती' को उपाधिसे विभूषित किया था। कृष्णराज ततोयके राज्यकालके आरम्भमें इन्द्रनन्दिने संस्कृतमें 'ज्वालामालिनीकल्प' नामक मन्त्रशास्त्रको रचना की थी। यह ग्रन्थ ९३९ ई० में मान्यखेटमें रचा गया था और उसमें कृष्णराजका उल्लेख है।
सोमदेवके बिलकुल समकालीन विद्वानोंमें हमें दो महान् विद्वानोंसे परिचित होनेका सौभाग्य प्राप्त है। उनमें से एक पुष्पदन्त हैं और दूसरे हैं, वादिघंघल भट्ट । पुष्पदन्तके सम्बन्धमें हम ऊपर लिख आये हैं। उन्होंने ९५९ ई०में कृष्णराज तृतीयके मन्त्री भरतकी संरक्षकतामें अपना महापुराण प्रारम्भ किया था। तथा भरतके पुत्र और उत्तराधिकारो नन्नको संरक्षकतामें जसहरचरिउ और नायकुमारचरिउको रचना की थी। पुष्पदन्तने अपनी रचनाएं अपभ्रंश भाषाके पद्योंमें की हैं । और अब तक प्रकाशमें आये अपभ्रंश भाषाके सर्वाधिक प्रमुख जैन कवियोंमें उनकी गणना की जाती है। उनकी अद्धत साहित्यिक प्रवृत्ति इस बातकी साक्षी है कि दसवीं शताब्दीमें अपभ्रंश साहित्यको स्थिति कितनी समुन्नत थी।
१. "( लें ) बुलपाटकनामधेयनिजराजधान्यां निजपितुः श्रीमद्वयगस्य शुमधामजिनालयाख्यवस (तेः ) खण्डस्फुटितनवसुधाकर्म बलिनिवेधार्थ शकान्देष्वष्टाशीत्यधिकेश्वष्टशतेषु गतेषु तेन श्रीमदरिकेसरिणा..."श्रीमत्सोमदेवसूरये..."वनिकटुपुलुनामा प्रामः"""दत्तः।" यशस्ति.
इण्डि० क०, पृ० ५। २. "विरचयिता यशोधरचरितस्य कर्ता स्याद्वादोपनिषदः कवि (वयि ) ता"।" ३. "अखिलमहासाम (न्तसी) मन्तप्रान्तपर्यस्तोसनक्सुरमिचरणः सकलविद्वजनकर्णावतंसी
मवद्यशःपुण्डरीकः सूर्य इव सकलावनिभृतां शिरःश्रेणिषु शिखण्डमण्डनायमानपादपमोऽभूत् ।"