Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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ग्रंथका विषयपरिचय
(३३)
पूर्वादिकं दिशाओं में खींचते हैं । अत एव वे सदा गतिमान् रहते हैं । इसी प्रकार अन्म सूर्यादिके नगरस्थलों को भी अभियोग्य जातिके देव सदा खींचते रहते हैं ।
इन ज्योतिषी देवोंमेंसे चन्द्रको इन्द्र और सूर्यको प्रतीन्द्र माना गया है । चन्द्रका चारक्षेत्र जम्बूद्वीप में १८० यो. और लवणसमुद्रमे ३३०६६ यो. है । इस चारक्षेत्र में चन्द्रकी अपने मण्डल प्रमाण (यो. ) विस्तारवाली ८५ गलियां हैं। प्रथम गली मेरुसे ४४८२० यो. की दूरी पर है । दूसरी गली इससे ३६१९७९ यो. दूर हैं । इसी प्रकार आगेकी गलियां उत्तरोत्तर ३६१७ यो. अधिक दूर होती गई हैं। इस प्रकार अन्तिम १५ वीं गली मेरुसे ४५३२९ ३ यो. की दूरी पर है।
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जम्बूद्वीपमें दो चन्द्र हैं । इनका अन्तर मेरुके विस्तारसे अधिक उसकी दूरीसे दूना रहता है । जैसे- प्रथम वीथीमें उन दोनोंका अन्तर ४४८२०x२ + १००००=९९६४० यो. रहता है । प्रथम पथकी परिधिका प्रमाण ३१५०८९ यो, है । इससे आगे द्वितीयादिक पथकी परिधि २३०१४३ यो. अधिक होती गई है। चूंकि प्रथम पथसे द्वितीयादि पथोंकी ओर जाते हुए वे चन्द्रादिक देवोंके विमान शीघ्र गमनशील और वापिस आते समय मन्द गमनशील होते हैं, अतः वे उन विषम परिधियोंका परिभ्रमण समान कालमें ही पूर्ण करते हैं । उक्त पन्द्रह परिधियोंमेंसे प्रत्येक परिधिके १०९८०० यो. प्रमाण गगनखण्ड किये गये हैं । इनमें १७६७ गगन खण्डोको एक चन्द्र एक मुहूर्त में घिता है । समस्त गगनखण्डों को दोनों चन्द्र ६२,२३३ ( १०२८०० + १७६८ ) मुहूतों में घि । अत एव चान्द्र दिवसका प्रमाण ३१४२ . मुहूर्त कहा है 1
चन्द्रनगरस्थलोंसे ४ प्रमाणांगुल ( ८३ हाथ ) नीचे राहुविमानके
पर्वराहुके भेदसे प्रसिद्ध है । इस
ध्वजदण्ड हैं । ये अरिष्ट रत्नमय राहुक्मिान कुछ कम एक यो विस्तृत और इससे आधे बाहुल्यवाले हैं । इनका वर्ण कज्जल जैसा है । इनकी गति दिनराहु और दो प्रकार है । जिस मार्ग में चन्द्र परिपूर्ण दिखता है वह दिन पूर्णिमा नामसे मार्ग से अव्यवहित दूसरे मार्ग में चन्द्र वायsय दिशाकी ओरसे और राहु आग्नेय दिशाकी ओरसे प्रविष्ट होते हैं । यहां दिनराहु अपनी गतिर्विशेषसे चन्द्रमण्डलकी एक कला (६ १६ = १२२ यो. ) आच्छादित करता है । इस प्रकार प्रत्येक मार्गमें दिनराहु द्वारा एक एक कलाके आच्छादित करने पर जिस मार्ग में चन्द्रकी एक कला ही अवशिष्ट रहती है वह दिन अमावस्या कहा जाता है | पश्चात् वह दिनराहु प्रतिप से प्रत्येक पथमें चन्द्रकी एक एक कलाको छोड़ता जाता है | पक्षान्तर में यहां यह भी कह दिया है कि " अथवा चन्द्रबिम्ब पन्द्रह दिन पर्यन्त स्वभावतः
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