Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तैसी वस्तुस्थितिके अनुसार प्रमाणनयोंके द्वारा ज्ञायमानपना नहीं है, इस बातको विचारशाली विद्वान् अपने आप जान लेते हैं । व्यर्थमें हम इस विषय के लिये चिन्ता क्यों करें । भावार्थ -- जो थोडी भी विचार बुद्धि रखते हैं वे तत्त्वोंकी परीक्षा सुलभतासे कर लेते हैं कि वस्तुके वास्तविक स्वभाव ये हैं, अन्यवादियोंके द्वारा कल्पित किये गये धर्म वास्तविक नहीं है, सर्वथा क्षणिकपना, सर्वथा नित्यपना सभी प्रकारोंसे एकपना आदि वास्तविक तत्त्व नहीं हैं। इस बातको आचार्य महाराजने पहिले ग्रंथ में भले प्रकार स्पष्ट कर दिया है । जिस वस्तुभूत अनेकान्तको हम हथेलीपर रख्खे हुए आंवले के समान वस्तुभूत सिद्धकर चुके हैं विचारशाली पुरुष उसको सर्वत्र देख रहे हैं, यों हम निश्चिन्त हैं ।
मोहारेकाविपर्यासविच्छेदात्तत्र दर्शनम् ।
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सम्यगित्यभिधानात्तु ज्ञानमप्येवमीरितम् ॥ ६ ॥
मोह, संशय, विपर्यास इन तीनों मिध्यादर्शनोंके व्यवच्छेदसे जो उन तत्त्वार्थोंमें दर्शन हुआ है, वही सम्यग्दर्शन है, जैसे कि बुरे आचार और मूर्खताको दूर करके जो ज्ञान हुआ है, वही अच्छी पण्डिताई है। यह समीचीनपना तो " सम्यक् " इस शब्दसे कहा जाता है । इसी प्रकार ज्ञानमें भी सम्यक् शब्द लगादेनेसे संशय विपर्यय और अज्ञानका व्यवच्छेद करना कहा गया समझलेना चाहिये ।
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तत्र तत्रार्थे कस्यचिदव्युत्पत्तिमहोध्यवसायापाय इति यावत् । चलिता प्रतिपत्तिरारेका, किमयं जीवादिः किमित्थमिति वा धर्मिणि धर्मे वा कचिदवस्थानाभावात् । अतस्मिंस्तदध्यवसायो विपर्यासः । इति संक्षेपतस्त्रिविधमिथ्यादर्शनव्यवच्छेदादुपजायमानं सम्यगिति विज्ञापयते ।
उस तत्त्वार्थ में किसी किसी जीवके तीन प्रकारके मिथ्यादर्शन हो सकते हैं । पहिला अवि वेक नामका मिथ्यादर्शन है । यह जीवका मोहनीय कर्मके उदय होनेपर मोहरूप भाव है । अव्युत्पन्न जीवको हित अहित नहीं सूझता है। इसका फलितार्थ यह हुबा कि तत्त्वोंके निर्णीत विश्वास करने का नाश हो जाना। दूसरा मिथ्यादर्शन आरेका यानी संशय है । एक विषयमें दृढ ज्ञान न होकर चलायमान कई अवान्तर ज्ञप्तियोंके होनेको संशय कहते हैं जैसे कि यह जीव है ? या अजीव अथवा ठूंठ है या पुरुष ? इत्यादि प्रकारसे धर्मी में संशय करके किसी भी एक कोटिमें अवस्थित (दृढ ) हो न रहना अथवा क्या जीव नित्य है ? अथवा अनित्य ? और इस ढंगसे व्यापक है या अव्यापक ? इस प्रकार संशय करते हुए किसी भी एक धर्ममें निश्चित रूपसे अवस्थित न होना संशय है । तीसरा मिध्यादर्शन अतत् में तत्रूपसे विपरीत निर्णय करना है, उसको विपर्यास कहते हैं । भावार्थ - सीप में वादीका ज्ञान कर लेना । इस प्रकार संक्षेपसे तीन प्रकार के मिथ्यादर्शनोंका व्यवच्छेद हो जानेपर उत्पन्न हुआ श्रद्धान समीचीन है, ऐसा सम्यक् पदसे जाना जाता है । अर्थात् तत्त्वार्थोके श्रद्धान करने
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