Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थाचिन्तामाणः
जिस धातु या नामसे सुप्, तिङ्, ङी, टापू, अण, युट् आदि प्रत्यय आते हैं, उसको प्रकृति कहले हैं और धातु या मृत्से जो विधान किया जाता है, वह प्रत्यय है । तत्त्व तत् ऐसी सामान्य रूपसे सत्र पदार्थोंको कहनेवाली प्रकृति है । क्योंकि तत् शब्द विचारा सर्व आदि गण में पडा हुआ है और सर्व आदि शब्द तो जगत् के सभी पदार्थोंमें प्रवृत्त होते हैं । उस प्रकृतिकी अपक्षासे प्रत्यय अपना अर्थ प्रगट कर देता है। तध्दित वृत्ति करके तत् शद्वसे भावमें त्व प्रत्यय हुआ है । अतः तत्त्व इस पद के कहने से सामान्यरूप करके भावका भले प्रकार ज्ञान हो जाता है । तत् यानी उस विवक्षित पदार्थका जो भाव अर्थात् परिणाम है, वह तत्त्व है । यों तत्त्व शद्वसे सामान्य भावोंका ज्ञान होता है। किंतु गुण, अर्थपर्याय, व्यञ्जन पर्याय आदि विशेषोंका ज्ञान नहीं हो पाता है। क्योंकि प्रत्ययके भावरूप अर्थको सर्वनामवाची सामान्य तत् शद्वकी अपेक्षा है। विशेषको कहनेवाले गुण - व्यतिरेक आदिकी अपेक्षा नहीं है । अर्थात् भलें ही भविष्य में सामान्यसे विशेषोंका ज्ञान हो जावे, क्योंकि विशेषों को छोडकर सामान्य रहता नहीं है । अतः परिशेषसे विशेषोंका ज्ञान हो जावेगा। किंतु महासताके समान तत्त्व शद्ब बडे पेटवाला है ।
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तत्र तत्त्वेनार्यमाणस्तत्त्वार्थ इत्युक्ते सामर्थ्याद्गम्यते यत्त्वेनावस्थित इति, यत्तदोनित्यसम्बन्धात् । तेनैतदुक्तं भवति, यत्त्वेन जीवादित्वेनावस्थितः प्रमाणनयैर्भावस्तत्त्वेनैवार्यमाणस्तत्त्वार्थः सकलो जीवादिर्न पुनस्तदंशमात्रमुपकल्पितं, कुतश्चिदिति ।
वहां तत्त्वार्थ शब्द की वृत्ति करनेके प्रकरण में तत्पने करके जो गमन करे या गम्य होवे अथवा जाना जावे, वह तत्त्वार्थ है ऐसा कहचुकनेपर विना कहे हुए अर्थापत्तिके बलसे ही यह समझ लिया जाता है कि जिसपने से जो पदार्थ स्थित हो रहा है उरूपनेसे गम्य होवे । क्योंकि इस प्रकार यत् शब्द और तत् शब्दका सदा ही सम्बन्ध रहता है। जो कहनेसे सो का आक्षेप होता है सो कह देनेसे जो का अन्वय हो जाता है । इस कारण से पूरे वाक्यका अर्थ यह कहा गया हो जाता हैं कि जिन जीव आदि स्वभावों करके पदार्थ अपने अपने खरूपमें स्थित हो रहे हैं उन्हीं स्वभावोंसे प्रमाण नयोंके द्वारा जाना गया जो भाव है वह तत्त्वार्थ है । अतः सभी जीव अजीव, आस्रव आदि पदार्थोंका संपूर्ण वास्तविक शरीर तत्त्वार्थ माना गया है । किन्तु फिर उनका कल्पना किया गया केवल अनित्यपन आदि एक एक अंश किसी भी प्रकारसे तत्त्वार्थ नहीं हैं। यहांतक यह बात सिद्ध हुई ।
ततोऽन्यस्तु सर्वयैकान्तवादिभिरभिमन्यमानो मिध्यार्थस्तस्य प्रमाणनयैस्तथार्यमाणत्वाभावादिति स्वयं प्रेक्षावद्भिर्गम्यते किं नश्चिन्तया ।
उन अपने अङ्ग उपाङ्गोंसे परिपूर्ण हो रहे जीव आदिक तत्त्वार्थोसे भिन्न जो पदार्थ सर्वथा एकान्तवादी पुरुषोंके द्वारा अभिमानपूर्वक माने गये हैं, वे तो सब झूठे अर्थ हैं। क्योंकि उन अर्थोको