Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
अर्थका तत्त्व विशेषण लगानेसे अभिधेय आदिका निवारण होते हुए अव्याप्ति दोष दूर हो जाता है। क्योंकि वे पूर्णमुख्यत्त्व होते हुए अर्थ नहीं हैं । तत्त्व शबसे समभिव्याहार करनेपर अर्थ शद्वद्वारा जीव आदिक तत्त्व ही ग्रहण किये जाते हैं।
तत्त्वश्रद्धानमित्यस्तु लघुत्वादतिव्याप्त्यव्याप्योरसम्भादित्यपरः। सोऽपि न परानुग्रहबुद्धिस्तत्त्वशब्दार्थे सन्देहात् । तत्त्वमिति श्रद्धानं, तत्त्वस्य वा तत्त्वे वा, तत्त्वेन वेत्यादिपक्षः संभवेत्, कचिनिर्णयानुपपत्तेः । न हि तत्त्वमिति श्रद्धानं तत्त्वश्रद्धानमित्ययं पक्षः श्रेयान् “पुरुष एवेदं सर्व नेह नानास्ति किञ्चन " इति सर्वैकत्वस्य तत्त्वस्य, ज्ञानाद्वैता. देर्वा श्रद्धानप्रसंगात् । __यहां किसी अन्यका कहना है कि तत्त्व शब्दसे यदि धन आदि अर्थोका निवारण हुआ है तो तत्त्वोंका श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन होजाओ। अर्थ शब्द लगाना व्यर्थ है । ऐसा कहनेसे सूत्रों एक दो मात्राओंका लाघव भी है तथा अतिव्याप्ति, अव्याप्ति, दोषोंके होनेकी सम्भावना भी नहीं है। आचार्य कहते हैं कि जो भी ऐसा कोई दूसरा कह रहा है वह भी लाघव और दोषोंका अभाव दिखलाता हुआ अपनेको परोपकारी कहलानेका विना विचारे साहस करता है । वस्तुतः उसकी बुध्दि दूसरोंका उपकार करनेमें नहीं प्रवर्त रही है । जहां अनेक संशयोंके उत्पन्न होनेका अवसर मिल जावें, ऐसे लाघव करनेसे क्या लाभ ? । यदि अकेला तत्त्व शब्द ही बोला जावेगा तो तत्त्व शब्दके अर्थमें अनेक प्रतिवादियोंको संशय उत्पन्न हो जावेगा । देखिये, “ तत्त्व हैं " इस प्रकार श्रध्दान करना सम्यग्दर्शन है या " तत्त्वका श्रदान करना” अथवा “ तत्त्वमें श्रध्दान करना" किंवा तत्त्व करके श्रदान करना" सम्यग्दर्शन है, इत्यादिक कई पक्ष सम्भवते हैं। किसी एक ही अर्थमें निर्णय करना कैसे भी नहीं बन सकता है । पहिले पक्षके अनुसार यदि तत्त्वश्रद्धानका अर्थ " तत्त्व है" इस प्रकार श्रद्धान करना माना जावेगा तो यह पक्ष कल्याणकारी श्रेष्ट नहीं है। क्योंकि ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं कि यह सम्पूर्ण चराचर जगत् ब्रह्मरूप ही है । यहां नाना ( अनेक ) पदार्थ कोई भी नहीं हैं । देशभेद, कालभेद, आकारभेद और व्यक्तिभेद आदि सब झूठे हैं । इस प्रकार सबका एकपना ही वस्तुभूत तत्त्व पदार्थ है । बौद्ध लोग कहते हैं कि क्षणिक ज्ञानपरमाणुरूप ज्ञानाद्वैत ही अकेला तत्त्व है। इसके अतिरिक्त घट, पट आदिक कोई भी तत्त्व नहीं हैं और शद्बाद्वैतवादी पण्डित तो शद्वको ही अकेला तत्त्व मानते हैं । इत्यादिक अनेक प्रकारों से अपने अभीष्ट तत्के भावको तत्त्व मान रहे हैं। उन तत्त्वोंके श्रद्धान करनेको भी सम्यग्दर्शन हो जानेका प्रसंग हो जावेगा। सो अतिव्याप्ति दोष होगा।
नापि तत्त्वस्य, तत्त्वे, तत्त्वेन, वा श्रद्धानमिति पक्षाः सङ्गच्छन्ते कस्य कस्मिन् वेति प्रश्नाविनिवृत्तेः । तत्वविशेषणे त्वर्थे श्रद्धानस्य न किञ्चिदवद्यं दर्शनमोहरहितस्य पुरुषस्वरूपस्य वा तत्त्वार्थश्रद्धानशद्धेनाभिधानात सरागवीतरागसम्यग्दर्शनयोस्तस्य सद्भावादव्याप्तेः स्फुटं विध्वंसनात् ।