Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उसी प्रकार अभावरूप अर्थका श्रद्धान करना भी उस सम्यग्दर्शनका निर्दोष लक्षण नहीं है। क्योंकि यों तो भावोंके श्रद्धान करनेका संग्रह न हो सकेगा । वस्तुस्वरूप अभाव और भावपदार्थों का भी सम्यग्दृष्टि जीव श्रद्धान करता है । इस भावके श्रद्धानमें लक्षण न जानेसे अव्याप्ति दोष होनेका प्रसंग होगा ।
नन्वेवमर्थग्रहणादिवत्तश्ववचनादपि कथमभिधेयविशेषाभावानां निवृत्तिस्तेषां कल्पितच्चाभावादिति चेत् न, अभिधेयस्य शद्वनयोपकल्पितत्वाद्विशेषस्य ऋजुसूत्रोपकल्पितत्वादभावस्य च धनप्रयोजनवत्कल्पितत्वसिद्धेस्तावन्मात्रस्य सकलवस्तुत्वाभावाद्वस्त्वेकदेशतया स्थितत्वात् ।
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तत्त्व ऐसा विशेषण
यहां कटाक्ष सहित यह शंका है कि इस प्रकार अकेले अर्थ ग्रहण करनेसे जैसे अभिधेय, विशेष और अभावोंका निवारण नहीं हो सकता है, उसी प्रकार अर्थका " देने से भी अभिवेय आदिका निराकरण कैसे हो जायेगा ? क्योंकि अभिधेय आदि भी तो वास्तविक तत्त्व हैं । वे कल्पित पदार्थ नहीं है । इस कारण तत्व शद्वके कहनेपर भी अव्याप्ति दोष बना रहता है । ग्रन्थकार समझाते हैं कि यदि ऐसी शंका करोगे सो ठीक नहीं । क्योंकि शवका वाच्यरूप अभिधेय तो शद्वनयके द्वारा अपेक्षापूर्वक कल्पना किया गया है और सामान्य द्रव्यसे रहित माना गया कोरा विशेष भी ऋजुसूत्रनयसे कल्पित किया गया है तथा अभाव भी परचतुष्टयकी अपेक्षासे नास्तित्व धर्मरूप कल्पित भंग है । सप्तभंगीके विषय होरहे धर्म कल्पित होते हैं। प्रश्नके बसे एक वस्तु विरोधरहित अनेक धर्मोकी कल्पनाको सप्तभङ्गी कहते हैं । अतः धन और प्रयोजनरूप अर्थोंको जैसे कल्पितपना है अर्थात् किसी गृहमें गुप्तधन गढा हुआ है, उसमें रहनेवाले निर्धन मनुष्योंकी सुवर्ण, रूपये, आदिमें अतीव धनतृष्णा लगी हुयी है । किन्तु उस रखे हुए धनके पास दिनरात घूमनेवाले चूहे, चींटोंको मौहर आदिमें अणुमात्र भी धनबुद्धि नहीं है । प्रत्युत उनके स्वतन्त्र भ्रमण करनेमें वे धनके भरे हुए हण्डे, विघ्नरूप होरहे हैं और प्रयोजन में भी ऐसा ही विप'रीतपना देखा जाता है । पूर्वकी ओरसे आनेवाली रेलगाडीमें बैठे हुए आतुर मनुष्य पश्चिम की ओर से आयी हुयी रेलगाडी में आनेवाले मनुष्योंको अच्छा समझते हैं और पश्चिमसे आनेवाले आततायी मनुष्य पूर्वदिशा से आनेवालोंको अच्छा समझते हैं कि इन्हींके समान उस देशमें हम भी होते तो हम आने जानेके क्लेशको क्यों उठाते ? हमारा प्रयोजन बहुत समय पहिले ही सिद्ध हो चुका होता । वैसे ही अभिधेय, विशेष, और अभावको भी कल्पितपना सिद्ध है । यहां कल्पनासे अवस्तु पकड़ी जाती होय सो नहीं समझना । जैन सिद्धान्तमें समीचीन कल्पनाओंको वस्तुके अंशोंका स्पर्श करनेवाली माना है ।"हां ! केवल उतना ही संपूर्ण वस्तुतत्त्व नहीं है । किन्तु अर्थोंमें अभिधेयपना वस्तुका एकदेश है। क्योंकि उससे अनन्तगुणा अनभिधेयतत्त्व पदार्थोंमे पडा हुआ है और विशेष भी वस्तुका एकदेश है । अभाव अंश भी वस्तुका एकदेश होकर प्रमाणोंसे प्रसिद्ध हो रहा है । अतः