Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
View full book text
________________
सम्मत्तणाणं जुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं। मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लध्द बुध्दीणं॥(106)
(पं.अ.) सम्यक्त्व और ज्ञान से ही युक्त,- न कि असम्यक्त्व और अज्ञान से युक्त, चारित्र ही-न कि अचारित्र, रागद्वेष रहित ही-न कि रागद्वेष सहित, भाव से मोक्ष का ही-न बंध का, मार्ग ही-न कि अमार्ग, भव्यों को ही-न कि अभव्यों को लब्धबुद्धियों को, (ज्ञानियों को) ही-न कि अलब्धबुद्धियों को, क्षीणकषायपने में ही होते है न कि कषायसहितपने में। इस प्रकार आठ प्रकार से नियम यहाँ देखना (समझना)।
"रत्नत्रय की परिभाषा" श्रद्धानं दर्शनं सम्यग्ज्ञानं स्यादवबोधनम्। उपेक्षणं तु चारित्रं तत्त्वार्थानां सुनिश्चितम् ॥(4)
. (त.सा. अध्याय।) तत्त्व-अपने-अपने यथार्थ स्वरूप से सहित जीव, अजीव आदि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन, उनका ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान और रागादि भावों की निवृत्ति रूप उपेक्षा होना सम्यक् चारित्र सुनिश्चित है।
कुन्द-कुन्ददेवने रत्नत्रय की परिभाषा करते हुए उपरोक्त सिद्धान्त को ही प्रकारान्तर से स्पष्टीकरण रूप से वर्णन निम्न प्रकार से किया है
सम्मत्तं सहहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं। चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं॥(107)
पं.अ. भावों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, उनका अवबोध ज्ञान है, मार्ग पर आरूढ़ होकर विषयों के प्रति अवर्तता हुआ समभाव चारित्र है।।
धम्मादीसदहणं सम्मतं णाणमंगपुव्वगदं।
चेट्ठा तवम्हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोति ॥(160) धर्मास्तिकाय आदि का श्रद्धान सो सम्यक्त्व, अंगपूर्व सम्बन्धी ज्ञान
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org