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सरस्वती
[भाग ३८
ही है ? परन्तु फिर वह यह भी स्थिर करने लगा कि पहले अनेक वर्ष तक मैंने उसे संसार से अछता रक्खा यह भी निश्चित हो जाय कि प्रेम है क्या ? क्या यह सम्भव था। किन्नु संयोग की बात, कुछ ऐसे कार्यों में लग गया नहीं हो सकता कि कल जिसे हम प्रेम समझते थे, अाज कि फिर आगे चलकर उसकी आत्मीयता का निर्वाह न वही जो हमें मृगतृष्णावत् प्रतीत होता है, एकदम कर सका। अकारण नहीं है ? जैसे धर्म के अनेक रूप हैं, वैसे ही मेरी बड़ी आकांक्षा थी कि मैं एक कन्या का पिता क्या प्रेम के अनेक रूप नहीं हो सकते ? वीणा विनोद का होता । किन्तु यह कैसे सम्भव था ? हम जो चाहते हैं, चाहती है-निस्सन्देह हृदय से चाहती है। और उनका केवल वही हमें नहीं प्राप्त होता । यही इस संसार की यह मिलन भी सर्वथा श्रेयस्कर ही है। तब, ऐसी दशा में, विलक्षणता है। मैं यदि उसका पथ प्रशस्त करके उसके सामने से हट जाता किन्तु मैं कन्या से सर्वथा हीन ही हूँ, ऐसी बात नहीं हूँ तो यह बात क्या वीणा के प्रति मेरे उत्सर्ग की, दूसरे है। तारा से एक कन्या हुई थी। मैंने उसका नाम...... शब्दों में, प्रेम की नहीं है ?
रक्खा था; क्योंकि उसका कण्ठ-स्वर बड़ा मृदुल था। विपिन जल्दबाज़ नहीं है । वह अतुलनीय धीर-गम्भीर रूप-सौन्दर्य में भी वह अपनी मा के समान थी। बल्कि है। वह कभी लतिका के जीवन का अनुभव करता है, उससे बढ़कर । उसके वाम स्कन्ध पर पास ही पास दो कभी वीणा-वादन का। इसी भाँति उसके दिन बीत रहे हैं। तिल हैं । जब मैंने सुना कि वह पढ़ रही है तब मुझे बड़ी इस कालक्षेप में वह उद्विग्न नहीं बनता। क्योंकि वह प्रसन्नता हुई थी। मैंने हठ-पूर्वक उसके व्यय के लिए मानता है कि जैसे ज्ञान के लिए यह विश्व असीम है, वैसे पचीस रुपये मासिक वृत्ति देने पर तारा को राज़ी कर ही जीवन के लिए ज्ञान भी असीम है । तब उसके समन्वय लिया था। मैंने उसे शपथ देकर वचन ले लिया था में काल के अनन्त राज्य में यह आज क्या और कल क्या ? कि वह उसका ब्याह अवश्य कर दे।
___ किन्तु यह तो काई प्रायश्चित्त नहीं है। जिसका मैंने पिता के द्विवार्षिक श्राद्ध से निश्चिन्त होकर एक दिन सर्वस्व अपहरण कर लिया है उसके लिए यह सब क्या विपिन उनकी डायरी के पृष्ठ उलटने लगा। उसमें एक चीज़ है ! मैं अनुताप से बराबर जलता रहा हूँ; और मुझे जगह लिखा था
ऐसा जान पड़ता है कि मेरी इस जलन की सीमा नहीं है, ससार मुझे कितनी प्रतिष्ठा देता है ! नगर का कोई थाह नहीं है, उसका अन्त नहीं है । श्राह ! मुँह खोलकर भी ऐसा व्यक्ति नहीं, जिसकी श्रद्धा, जिसका सम्मान मुझे मैं किससे पूछ, कैसे पूछं कि मैं तारा के लिए अब क्या प्राप्त न हो ! सांसारिक वैभव भी मैंने थोड़ा अर्जन नहीं कर सकता हूँ ? ऐसा जान पड़ता है कि यह जीवन ही किया है। लोग समझते हैं, मेरा जीवन बहुत ऊँचा है । मैं नहीं, अगले जीवन में भी मुझे इसके लिए इसी तरह सब प्रकार से सुखी हूँ। बड़े संतोष की मृत्यु मैं लाभ जलना पड़ेगा। करूँगा । जैसी अक्षय कीर्ति मुझे अपने इस जीवन-काल में तो यह भी ठीक ही है। जीवन जैसे एक दीप है, मिली है, परलोक-यात्रा में भी मैं वैसे ही महत्तम पुण्य का जलना ही जैसे उसका धर्म है, वैसे ही अगर मैं जलता ही भागी बनूँगा ! किन्तु लोग नहीं जानते; अपने यौवन- रहूँ, तो भी वह मेरे जीवन की एक सार्थकता ही है ! जो काल में मैंने कैसे-कैसे गुरुतर पाप किये हैं !
हो, आज अगर वह साकार होता तो उससे मैं यह पूछे तारा एक सम्भ्रान्त कुल की युवती कन्या थी। अपूर्व बिना न रहता कि मेरी इस जलन का अन्त कहाँ है ? सौन्दयं था उसमें, सर्वथा अलौकिक । एक बार प्रसंगवश x
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x उसे देखकर मैं सदा के लिए खो सा गया था। किसी और विपिन बोला--अब चलो वीणा, मैं तुम्हें प्रकार मैं उसे प्राप्त करने का लोभ संवरण न कर सका। लेने आया हूँ। मेरी प्रापर्टी का तीसरा भाग तुम्हारा है। तव विवश होकर अपने ताल्लुके की देख-भाल में मैं उसे पिता जी की ओर से मैंने उसे विनोद को कन्या-दान में ज़बर्दस्ती ले आया था।
देने का निश्चय किया है।
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