________________
४६
सरस्वती
यह वीणा भी एक विलक्षण नारी है— अपने विश्वासों की रानी, निराशा से होन, उत्तरंग और अपराजिता । उस दिन उसने विपिन को जान-बूझकर विशिष्ट विभ्रम में डाल दिया था। मानवात्मा की निर्बाध कल्लाल - राशि में पली हुई इस नारी की यह एक प्रकृतकीड़ा है। अभीप्सित विलास-गर्भित हो-होकर वह जगत् का समस्त रूप इस एक ही जीवन के विकल्प में अनुभव कर लेना चाहती है। वह किसी से भी अपनी आकांक्षा प्रकट नहीं करती और किसी की भी आकांक्षा को अपने निजत्व के साथ स्थापित नहीं करती । वह सदा सर्वदा निर्द्वन्द्व रहना चाहती है । वह मानती है कि उसे निर्झरिणी की भाँति सदा मुखरित रहना है । मानो यह भी नहीं देखना है कि कितनी पाषाण शिलायें उसके कोलाहल में आई और गई और उसके निनाद की गति में यदि कभी मति उपस्थित हो गई तो उसकी क्या स्थिति होगी ।
विपिन के इस उत्तर से वीणा के जलजात दुर्लभ अधर - पल्लव खिल उठे, दाड़िमदशन युग्म झलक पड़े। विहँसती हुई वह बोली - "तुम पागल हो गये हा विपिन । मेरी उस दिन की बातों ने तुम्हें बिलकुल बदल दिया है। फिर भी तुम इसे स्वीकार नहीं कर रहे हो ! श्राघात सहते हुए कोई व्यक्ति कभी स्पर्श्य रह भी सका है कि एक तुम्हीं रह पाओगे ?”
"मनुष्य का हृदय मिट्टी का घरौंदा नहीं है वीणा, जिसे जब चाहोगी तब ठोकर मारकर नष्ट कर डालोगी और फिर उमङ्ग में श्राकर उसे इच्छानुकूल बना लोगी । संसार में ऐसा कौन है जो परिस्थिति के अनुसार बदलता न हो । तुम्हीं से पूछता हूँ वीणा, बतलाओ, तुम्हीं क्यों बदल रही हा । श्राज तुम्हीं को यह पागलपन क्यों सूझ रहा है, जिस व्यक्ति से तुम्हारा कोई सौहार्द्र नहीं है, जिसकी आत्मीयता तुम्हारे लिए सर्वथा क्षुद्र हो गई है, उसके मर्मस्थल को कोंच- कोंचकर तुम जिस श्रानन्द का अनुभव कर रही हो वीणा, वह श्रानन्द, वह उल्लास, मानवात्मा का नहीं। मुझसे मत कहलाओ कि किसका है ।"
विपिन अकस्मात् उत्तेजित होकर कह गया। उसकी अपरूप भाव-भंगी देखकर वीणा कुछ क्षणों के लिए अवाक् रह गई ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३८
विपिन तब स्थिर न रहकर फिर बोला – “ रह गई बात बुरा मानने की। मैं जानना चाहता हूँ वीणा, बुरा और भला संसार में है क्या। कौन कह सकता है कि आज मैं जो हो सका हूँ उसके मूल में कहीं कोई ऐसी बात भी है जिसे तुम 'बुरा मानना' कह सकने का दम भर सकती हो। मैंने बुरा मानकर उसे भला मान लिया है वीणा । मैं बुराई मात्र को भलाई की दृष्टि से देखने का अभ्यासी हूँ । दुनिया के लिए तुम चाहे जो हो वीणा, मेरे लिए तुम वही जगत्तारिणी मन्दाकिनी ही हो। मैं तुम्हारा कितना उपकृत हूँ, कह नहीं सकता |
उसका श्रानन ज्वलन्त कान्ति से जगमग हो उठा । वीणा समझती थी, वह अपराजिता है- किसी के समक्ष वह कभी हार नहीं सकती। एक वीणा ही नहीं, संसार की निखिल यौवन दृप्त अंगनायें कदाचित् ऐसा ही समझती हैं। वे नहीं जानतीं कि व्यक्तित्व के चरम उत्कर्ष की क्षमता उन्हें किस अर्थ में ग्रहण करती है । वे नहीं अनुभव करतीं कि कोई उत्क्षेप उनके लिए अकल्पित भी हो सकता है । वे नहीं देखतीं कि किसी के अन्तस्तल की शून्यता भी उन्हें श्राकण्ठ प्लावित बना रही है। वीणा भी ऐसी ही नारी थी । किन्तु आज के इस क्षण में वीणा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो इस विपिन के आगे वह क्षुद्र, अतिशय क्षुद्र हो गई है। कोई भी उसकी मर्यादा नहीं है, कहीं भी उसकी गति नहीं है । यही एक विपिन इसमें समर्थ है कि वह चाहे तो उसे उठाकर चरम नारीत्व तक पहुँचा दे ।
इस वीणा ने अभी तक जान पड़ता है, अपना हृदय कहीं कुछ अवशिष्ट भी रख छोड़ा था। तभी तो यही सब सोचती हुई उसकी नयन-कटोरियाँ भी भर आई । अटकते हुए अस्थिर आर्द्र स्वर में उसने कहा- तुम मुझे क्षमा करो विपिन या चाहे तो न भी करो; लेकिन हाय ! तुम भी तो यह जानते कि मैं कितनी दुखिया नारी हूँ । मैं किसी को चाह नहीं सकती, किसी का हृदय अपना नहीं बना सकती ! और अधिक क्या बताऊँ ! जब कि मैं खुद ही नहीं जानती कि मैं क्या हूँ, कौन हूँ ।
कथन के अन्तिम छोर तक पहुँचती पहुँचती वीणा रो
पड़ी ।
वृक्ष से लगाकर उसकी सुरभित कुन्तल - राशि पर
www.umaragyanbhandar.com