________________ प्रथमः सर्गः। चारहग भवतीति विरोधाभासः, परिहारस्तु पूर्वमुक्तः। अवर्तत मासीत् / अपिवि. रोधे। सूर्यतेजसं चारशच नलं ज्ञात्वा शत्रवो भयात् परस्परोपजापादिवैरभावं तत्यजुरिति भावः / अत्र विरोधोरप्रेयोरङ्गाङ्गिभावः // 13 // ____ विरोधी राजाओं के समान परस्पर विरोधी स्वभावोंने भी उस नलके भय से भेदभाव को छोड़ दिया क्या ? / जो नल अमित्रजित् (शत्रुओं को जीतनेवाले ) होकर भी मित्र जित् (मित्रोंको जीतनेवाले, विरोध परिहार पक्षमें-अपने प्रतापसे सूर्यको बीतनेवाले ) थे तथा चारदा ( गुप्तचरोंके ) द्वारा ( कार्यकलापको देखनेवाले ) होकर भी विचारदृक् ( गुप्तचरों के द्वारा नहीं देखेनेवाले, विरोध परिहार पक्ष-विचारसे देखनेवाले अर्थात् विचारपूर्वक कार्य करनेवाले ) थे। [ जो नल मित्रजित थे, उनका अमित्रजित ( मित्रजित नहीं ) होना तथा जो चारदृक् थे, उनका विचारदृक् ( चार दृक् नहीं ) होना अर्थ करके विरोध आता है; अतः उसका परिहार 'जो नल प्रमावसे सूर्यको जीतनेवाले थे, वे शत्रुओं को भी जीतनेवाले थे और जो चारदृक ( दूतों के द्वारा कार्योंको देखनेवाले ) थे, वे विचार. दृक् ( विचारपूर्वक कार्योको देखनेवाले ) थे, अर्थ के द्वारा करना चाहिये ] // 13 // तदोजसस्तद्यशसः स्थिताविमौ वृथेति चित्ते कुरुते यदा यदा / तनोति भानोः परिवेषकैतवात्तदा विधिः कुण्डलनां विघोरपि / / 14 / / तदिति / तस्य नलस्य ओजः तेजः प्रताप इत्यर्थः, तस्य तथा तस्य नलस्य यशः तस्य स्थिती सत्तायाम् इमो भानुविधू वृथा निरर्थको इति चित्ते यदा यदा कुहने विवेचयतीत्यर्थः, विधिः तदा तदा परिवेषः परिधिः 'परिवेषस्तु परिधिरुपसूर्यकमण्डले' इत्यमरः। एव केतवं छलं तस्मात् मानोः सूर्यस्य विधोरपि चन्द्रस्य च कुण्डलनाम् अतिरिक्ततासूचकवेष्टनमित्यर्थः, करोति अधिकाक्षरवर्जनार्थ लेखकादिवदिति मावः। विजित चन्द्राको अस्य कीर्तिप्रतापौ इति तात्पर्यम् / अत्र प्रकृतस्य परिवेषस्य प्रति. षेधेन अप्रकृतस्य कुण्डलनस्य स्थापनात् अपह्नतिरलकारः, तदुक्तं दपणे 'प्रकृत प्रति. षिद्ध धान्यस्थापनं स्यादपद्धति' रिति / प्राचीनास्तु परिवेषमिषेण सूर्याचन्द्रमसोः कुण्डलनोस्प्रेक्षणात् सापहवोस्प्रेक्षा / सा च गम्या व्यक्षकाप्रयोगादित्याहुः // 14 // 'उस नलके प्रताप तथा यशके रहने पर ये दोनों (सूयं तथा चन्द्रमा) व्यर्थ है, इस प्रकार ब्रह्मा मनमें जब-जब विचारते हैं, तब-तब सूर्य तथा चन्द्रमाके परिवेष ( कमीकमी सूर्य तथा चन्द्रमामें दृष्टिगोचर होनेवाला गोलाकार घेरा) के छलसे ( व्यर्थतासूचक ) कुण्डलना बना देते हैं। [लोकमें भी कोई व्यर्थ वस्तु लिखी जाती है तो उसको चारों औरसे वेर देते हैं / नलके प्रताप तथा यशको सूर्य-चन्द्राधिक समझकर सृष्टिकर्ता प्रक्षाको, सूर्य-चन्द्रको घेरकर व्यर्थ माननेकी उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 14 // अयं दरिद्रो भवितेति वैधसी लिपि ललाटेऽथिनजनस्य जाप्रतीम् / मृषा न चक्रेऽल्पितकल्पपादपः प्रणीय दारिद्रयदरिद्रतां नृपः / / 15 / /