Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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प्रस्तावना
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कसा पाहुडके उक्त अधिकार में उपशमश्रेणिसे प्रतिपातका कारण बतलाकर यह भी बतलाया है कि किस अवस्थामें गिरकर जीव किस गुणस्थान में आता है । गाथा निम्न प्रकार है"दुविहो खलु पडिवादो भवक्खयादुवसमक्खयादो दु । सुमे च संपराए बादररागे च बोद्धव्वा ।। ११७॥”
इस पर चूर्णिसूत्र निम्न प्रकार
"दुविहो परिवादो भवक्रययेण च उवसामणाक्खयेण च । भवक्खयेण पदिदस्स सव्वाणि करणाणि एसमएण उग्धादिदाणि । पढमसमए चैव जाणि उदीरिजजंति [कम्माणि ताणि उदयावलियं पवेसयाणि । जाणि उदीरिज्जति ] ताणि वि ओक्कडियूण आवलियबाहिरे गोवृच्छाए सेढीए णिक्खित्ताणि । जो उवसामणाक्खयेण पडिवsदि तस्स विहासा ।"
इसका मिलान कर्मप्रकृतिके उपशमनाकरणकी ५७ वीं गाथा की निम्न चूर्णि से कीजिये -
"इयाणि पडिवातो सो दुविहो - भवक्खएण उवसमद्धक्खएण य । जो भवक्खएण पडिवडइ तस्स सव्वाणि करणाणि एगसमतेण उग्घाडियाणि भवंति । पढमसमते जाणि उदीरिज्जति कम्माणि ताणि उदयावलिगं पवेसयाणि । जाणि ण उदीरिज्जंति ताणि उक्कड ढिऊण उदयावलियबाहिरतो उर्वार गोपुच्छागितीते सेढ़ीते रतेति । जो उवसमद्धाक्खएणं परिपडति तस्स विहासा ।"
यह ध्यान में रखना चाहिये कि प्रतिपातके इन भेदोंकी चर्चा कर्मप्रकृतिकी उस गाथामें तो है ही नहीं जिसकी यह चूर्णि है किन्तु अन्यत्र भी हमारी दृष्टि से नहीं गुजर सकी। दूसरे 'त विभासा' करके लिखने की शैली चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभकी ही है यह हम पहले उनकी व्याख्यानशैलीका परिचय कराते हुए लिख आये हैं । कर्मप्रकृतिकी कमसे कम उपशमनाकरणकी चूर्णिमें तो 'तस्स विभासा' लिखकरके गाथाके व्याख्यान करनेका क्रम इसके सिवाय अन्यत्र दृष्टिगोचर 'नहीं हो सका। कर्मप्रकृति के चूर्णिकार तो गाथाका पद देकर ही उसका व्याख्यान करते हैं । जैसे इसी गाथाके व्याख्यानमें- “उवसंता य अकरण त्ति उवसंतातो मोहपगडीतो करणा य ण भवंति । " उनका सर्वत्र यही क्रम है। तीसरे, एक दूसरे की रचनाको देखे विना इतना साम्य होना संभव प्रतीत नहीं होता । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि कर्मप्रकृतिके चूर्णिकारने कसा पाहुडके चूर्णि - सूत्रों को देखा था ।
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३ जयधवला
इस संस्करण में कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रोंके साथ जो विस्तृत टीका दी गई है। उसका नाम जयधवला है । यों तो टीकाकारने इस टीकाकी प्रथम मंगलगाथा के आदिमें ही 'जयइ धवलंगतेए-' पद देकर इसके जयधवला नामकी सूचना दे दी है । किन्तु अन्तमें तो उसके नामका स्पष्ट उल्लेख कर दिया है । यथा
नाम
" एत्थ समप्पइ धवलियतिहुवणभवणा पसिद्ध माहप्पा |
पाहुडसुत्ताणमिमा जयधवलासष्णिया टीका ॥ १ ॥ "
अर्थात्- 'तीनों लोकोंके भवनोंका धवलित करने वाली और प्रसिद्ध माहात्म्यवाली कसायपाहुडसूत्रों की यह जयधवला नामकी टीका यहाँ समाप्त होती है ॥ १ ॥
ऊपरके उल्लेखांसे यह तो स्पष्ट होजाता है कि इस टीकाका नाम जयधवला है । किन्तु इस नामका यह जाननेकी आकांक्षा बनी ही रहती है कि इसको यह नाम क्यों दिया गया ? कारण- टीकाकारने स्वयं तो इस सम्बन्धमें स्पष्ट रूपसे कुछ भी नहीं लिखा, किन्तु उनके उल्लेखों से कुछ कल्पना जरूर की जा सकती है। टीकाके प्रारम्भमें टीकाकारने भगवान्
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